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Saturday, July 5, 2025

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किंवदन्तियों में कीनाराम: मैं उन्हें कबसे जानता हूँ

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Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

‘‘मैं उन्हें कबसे जानता हूँ?’’
हाँ, यही सवाल सबसे पहले मेरे दिमाग में उगा था। कोई भी सवाल जब दिमाग में उगता है तो परेशानी में डालता है। परेशानी पीछे पड़ती है तो बहुत दूर तक खींच ले जाती है। उथल-पुथल मचा डालती है। मन को मथने लगती है। किसिम-किसिम की स्मृतियों के भंवरजाल में बहुत समय तक डूबता-उतराता रहा। फिर एक सवाल और आया जिसने मेरी चेतना को झकझोर कर डंवाडोल कर डाला।
‘‘क्या मैं उन्हें जानता हूँ?’’
इस सवाल के सामने पड़ते ही मैं भीतर तक बिल्कुल सिहर उठा। नहीं, नहीं बिल्कुल नहीं। यह तो बड़ा विकट सवाल है।
इस सवाल के सामने तो मेरी भगई ही सरक गई। यह तो एकदम नंगा कर देने वाला सवाल है।
नंगा होने को कौन राजी होता है। कौन राजी हो सकता है। कोई नहीं…..। कोई नहीं….।
सन्त को जानने का क्या मतलब है?
सन्त को जानना सहज है? सरल है? संभव है?
कौन कह सकता है!
सन्त को बिना सन्त हुए जाना जा सकता है क्या?
किसी सन्त को जानना उसके जीवन से सम्बन्धित कुछ विवरणों और कुछ सूचनाओं से अवगत होना है क्या?
परिचय और पहचान तो अहं से सम्बन्धित है। अस्तित्व की तो कोई पहचान नहीं है। कोई परिचय नहीं है।
सन्त अहं में अवस्थित नहीं है। वह तो अहं का अतिक्रमण करके अस्तित्व में विलीन सत्ता का वाचक है।
वह अस्तित्व की उस सत्ता का वाचक है, जो हर कहीं है। हर किसी में है। सब कुछ वही है।
यानी ईश्वर। सन्त जगत में ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसकी प्राकृत विभूति का प्रसारक।
चन्दन तरू हरि सन्त समीारा। (तुलसी दास)
जीवन में जो सुगन्धि का स्रोत है। जो आनन्द का अधिष्ठान है, सन्त उसका संवाहक है।

कस्तूरी कुण्डलि बसै मृग ढूढै वन माहि।
ऐसे घट-घट राम है दुनिया देखे नाहि।। (कबीर)

जो हर कहीं है मगर दुनिया नहीं देखती। दुनिया जिसे नहीं देख पाती सन्त उसे देखता है। सन्त उसे ही देखता है। दुनिया को नहीं सन्त की सत्ता बड़ी व्यापक सत्ता है। वह दुनिया जिसे नहीं देखती उसे भी देखता है। दुनिया जिसे देखती है उसे भी देखता है। वह दुनिया को भी देखता है। समूचे संसार के मूल में जो है वह हरि है। जो मूल में है वही मूल्यवान है। वही हीरा है हीरा को छोड़कर अन्य की आस करना दुख की तरफ जाना है। दुख पाना है।

हरि-सा हीरा छाँड़ि के करै आन की आस
ते नर नरके जाहिंगे सत भाखै रैदास (रैदास)

सारा संसार प्रभु में समाहित है। प्रभु को पकड़ने से सब पकड़ में आ जाता है। सब कुछ जिसमें समाहित है और जो सबमें व्याप्त है उसे जानकर जीना ही सन्त का जीना है। सन्त का जीवन है।

सो सब प्रभु महँ रमि रहयो जड़ चेतन निज ठौर।
ताते राम सँभरि गहु सबन नाम को मौर।। (कीनाराम विवेक सार पृ032)

संसार के सारे नाम जिस नाम में समाहित हैं वह नाम ही राम नाम है। सारे रूप जिस रूप में समाहित हैं वह रूप ही भगवान का रूप है। भगवान ही सारे रूपों के आश्रय है। स्वामी हैं। उस रूप का सेबक होना ही सन्त होना होता है।

सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमन्त।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त।।

अहं अनित्य है। अस्तित्व नित्य है। अहं विनाशशील है। अस्तित्व अविनाशी है।
अस्तित्व का बोध ही सन्त की अस्मिता है। नित्य की उपासना ही सन्त की संज्ञा है। अविनाशी में समाहन ही सन्त की पहचान है।
कैसी विलक्षण है सन्त की अस्मिता। कितनी सूक्ष्म और व्यापक है सन्त की संज्ञा। कैसी अद्भुत है सन्त की पहचान।
संसार की दृष्टि से सन्त की पहचान संभव नहीं।
नहीं, मैं नहीं कह सकता कि मैं उन्हें जानता हूँ।

फिर भी….।
फिर भी दुनिया के व्यवहार की भाषा में कह सकता हूँ कि मैं उनको जनता हूँ।
उनके बारे में बहुत कुछ सुना हूँ। सुनता आ रहा हूँ। उनकी महिमा की कहानियाँ मेरे जेहन में सुरक्षित हैं। उनके रंग आज भी वैसे ही टहक हैं। गरीबों असहायों के प्रति उनकी करूणा मन को उमांगित करती है। राजवंशों के अभिमान को ठोकर मारने को अभिनन्दनीय उत्साह उनके प्रति श्रद्धावनत करता है। अत्याचारी शासन के अनाचार के प्रति उनका उदग्र प्रतिरोध उनके जन संरक्षक व्यकित्व में आत्मीय अनुराग जाता है। उनका बहुवर्णी चरित बरबस अपनी तरफ खींच लेता है। लोक मानस में अंकित उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की कहानियॉ मन में उनके प्रति कौमुहल, विस्मय,आदर और प्रशस्ति के भावों का अकवरल सृजन करती रहती हैं।
मैं बाबा कीनाराम के सन्दर्भ में सोचता हूँ तो स्मृतियां बचपन में खींच ले जाती हैं। अपनी स्मृति की पुस्तिका को पलटकर देखता हूँ तो उसके शुरूआती पन्नों पर ही कीनाराम जी का नाम अंकित पाता हूँ। जब मेरा मस्तिष्क किसी भी तरह की स्मृति को धारण के योग्य बन रहा था तभी उसमें बाबा कीनाराम की उज्ज्वल कीर्ति की कथाएं शामिल हो गई थीं।
हमारा बचपन जिस गांव में पल्लवित हुआ है, वह गांव पारंपरिक भारतीय जीवन शैली का जीवन्त गाँव था। शताब्दियों से चली आ रही जीवन व्यवहार की चीजे उस गाँव में जीवित हुआ करती थी। आज के गॉव की तरह तब हमारा गाँव आधुनिक सभ्यता की प्रताड़ना से विपन्न गाँव नही था। पारस्परिकता और सामूहिकता तब गाँव के प्राण तत्व हुआ करते थे। तब गॉवों में सूचनाओं के सामूहिक संप्रेषण के केन्द्र हुआ करते थे। जोड़े के दिनों में हर दरवाजे पर लगने वाले अलाव के चौगिर्द अड्डे पुराने कथा प्रसंगो के माध्यम से स्मृति को समृद्ध और समुन्नत बनाने के केन्द्र थे। आज की तरह तब अलाव बेघर नही हुए थे। हमने उन्ही अलावों के माध्यम से सबल सिंहं चौहान की महाभारत के कथा प्रसंगों से परिचय प्राप्त किया था। वहीं से जगनिक के आल्हा के कथानायकों से जान पहचान कायम की थी।

वहीं तुलसीदाम की रामायण के भक्ति रस का रसपान किया था। वहीं से बाबा कीनाराम ने हमरी स्मृति में प्रवेश किया था। बाबा कीनाराम से हमारा परिचय किंवदन्तियों के माध्यम से हैं। उनके साहित्य से परिचय तो बहुत बाद में हुआ है। हमारी पहली स्मृति में बाबा की छवि लोकनायक की छवि है। हाँ उनकी उपस्थित हमारी स्मृति में अपने समय के बुजुर्गो की कणी के माध्यम से लौकिक शक्तियों के स्वामी के रूप में लोगों के दुख को दूर करने वाले महानायक की तरह आई हुई है और आज भी उसी तरह से अविचल है। उस समय गॉव का जीवन पारस्परिकता और आपसदारी का अद्भुत केन्द्र था। किसी एक व्यक्ति की अनुभव सम्पदा वाणी से व्यक्त होकर अनेको के जीवन बोध में सम्मिलित हो जाया करती थी। तब घरो के दरवाजे हमेशा बन्द नहीं रहते थे। बेरोक-टोक घरों में आना-जाना सहज था। व्यक्तियों के साथ उनके सुख-दुख भी एक से दूसरे घरो में आया-जाया करते थें। गालियाँ माला के उस धागे की तरह थीं जिसमें गाँव के सारे घर फूल की तरह गुँथे हुए थे। गालियॉ केवल आने-जाने के काम के लिये नहीं थी। जिन्दगी के और भी बहुत से कीमती कामों की भागीदार थीं। गालियाँ कच्ची थीं जिनमें छोटे-बड़े सारे लोगों के पाँवों के निशान पड़ते थे और पहचाने जा सकते थे। एक घर में जिलाई गई आग कई-कई घरों के लिए चूल्हे जलाने के काम की होती थी। दरवाजों के सामने खुले हुए चबूतरे थे जहाँ जिन्दगी का सब कुछ दिखाई पड़ता था। सारा का सारा हास-हुलास और दुख संत्रास सब कुछ खुला था गोपन कुछ भी नहीं था। एक दूसरे की जिन्दगी में आना-जाना सहज था। बाबा कीनाराम की चर्चाएं वातावरण में व्याप्त थीं।

मेरे स्मृति पटल के पहले अध्याय में बाबा कीनाराम का चरित्र उसी तरह अंकित है जैसे रामायण की चौपाइयाँ। जैसे महाभारत के कथा प्रसंग। जैसे आल्हा के बोल। जैसे गाँधी की गाथा। जैसे बिरहा और लोरकी के आलाप जैसे ढेकी में धान कूटते और जॉता में जौ-गेहूँ पीसते गाये जाते माँ-चाचियों के गीत। पूजा त्योहार के दिनों में देवी से अरदास के गान। यह सब सामूहिक सम्पदा थी। इनका संप्रेषण भी सामूहिक था और संपोषण भी सामूहिक था। इन सब पर किसी व्यक्ति का कापीराइट नहीं था। लोक जीवन में श्रुति परम्परा का जो कुछ था सबका था। सबके लिए था। सार्वजानिक विरासत का ऐसा दुर्लभ स्वरूप आने वाले समय के लिए विस्मय के विषय के रूप में बचा रहेगा। कीनाराम की कीर्ति हमारे लिए उसी सार्वजनिक विरासत की अनमोल थाती है। उस पर किसी व्यक्ति का नहीं किसी संस्था का नही बल्कि सर्वजन का अधिकार है। आज भी मेरा विश्वास है श्रुति परम्परा में निहित शिक्षा का संस्कार शिक्षण का सर्वोत्तम स्वरूप है। स्मृति संस्कार ही शिक्षा का चरम फल है, वह श्रुति माध्यम से सहज सुलभ हो जाता है। भारतीय शिक्षा परंपरा की सहज प्रविधि आज भी सन्तों की भ्रमण संवाद योजना के अन्तर्गत हार्दिक सम्मिलन के रूप में प्रतिष्ठित और पूजित है।
एक सन्त जिसका अपना कुछ भी नही है, कैसे सबका बन जाता है, कैसे सबके दिलों में अपना निवास बना लेता है, बड़ा विस्मय जनक है। साधु चरित सुभ चरित कपासू सहज विसद गुनमय फल जासू।।
अपने लिये न रह जाना ही सबके लिये हो जाना होता है क्या?

हाँ!
जिसे अपने लिये कुछ नही चाहिए वही जगत के हित का साधक हो सकता है। जिसे अपने लिये कुछ भी पाना शेष है वह सांसारिक प्राणियोें के हित चिन्तन में प्रवृत्त नहीं हो सकता। सन्त की अस्मिता जगत के हित चिन्तन में निरत अस्मिता है।

तरूवर फल नहि खात है, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने साधुन घरै सरीर।।

साधु पुरूषों के शरीर धारण का प्रमुख
उद्देश्य लोक कल्याण है। अपने समय के मनुष्य जीवन में ईश्वरीय आनुदेशों की स्थापना सन्त के जीवन का ध्यये होता है। भगवत्ता का प्रसार ही सन्त के माध्यम से प्रतिपादित होने वाला अलौलिक कर्म है, जिससे जन जीवन ईश्वर के प्रति उन्मुख होता है। ईश्वरीय विधान के प्रति उनके ह्रदय में आस्था का उदय होता है। ईश्वर के प्रति लोक मानस में आस्था के भावों को उप्रेरित करने के निमित्त ही सन्त अपने कर्म और वाणी का व्यवहार करते है।
अपने में सबको देखने और सबमें अपने को देखना ही सन्त का देखना होता है। समस्त संसार का संचालन प्रभु की प्ररेणा से हो रहा है। यही धारणा सन्त कली धारणा है। इस धारणा के जीवन में अधिष्ठित होने से दुर्मती का विनाश हो जाता है-

आपु मॉहि सब देखिया सब मों आपु समाय।
पालै एक प्रतीति कहॅ दुरमति दूर बहाय।। (विवेका सार-268)

बाबा कीनाराम की लोक कल्याण की कथाएँ और उनकी ईश्वरीय विभूति के प्रसार की प्रेरणाएँ मेरे बचपन की स्मृति की धरोहर है। हमारे बचपन में कीनाराम की किवदन्तियाँ जनमानस में सन्त रमैया से जुड़ी हुई प्रसरित थीं। रमैया के माध्यम से मैंने कीनाराम को पाया है। सन्त रमैया हमारी ही ग्राम पंचायत खखड़ा के अन्तर्गत कुशहॉ गाँव में आविर्भूत महान और अपने समय लोक में समादृत महिमामय महापुरूष थे। यहीं के मौजा उन्नीनीबी में उनका प्रशस्त और भव्य आश्रम था जो आज भी ऐतिहासिक अवशेष के रूप मौजूद है। सन्त रमैया अधोरेश्वर कीनाराम के समकालीन और समकक्ष महात्मा थे। उनका आपस में एक दूसरे के प्रति बड़ा ही स्नेह और सम्मान था दोनों का एक दूसरे के यहॉ खूब जाना-आना हुआ करता था। हँसी-मजाक, व्यंग्य विनोद का स्नेहिल दौर उनके बीच चला करता था।
लोग बताते थे कि एक दिन बाबा रमैया अपने आश्रम में थे। चैत-वैशाख का दिन था। सूरज ढल रहा था। पीपल के विशाल वृक्ष पर अपने नीड़ को लौटते पक्षियों के परिवार चहचहा रहे थे। भक्तों की भीड़ के सामने रमैया राम-सीता मन्दिर के सामने चबूतरे की चहारदीवारी पर बैड़े हुए पूरब की तरफ देख रहे थे। तभी उत्तर की तरफ से मुख्य मार्ग पर एक हाथी दिखाई पड़ा। बाबा बोल पड़े ऊ देखा हाथी।
लोगों ने देखा हाथी आ रहा था। उसी समय हाथी मुख्य मार्ग से दाहिने मुड़कर आश्रम की तरफ चल पड़ा। हाथी अभी मील भर दूर था। सारे लोग चौंक पडे़ जब बाबा ने घोषण की कि ऊ कीनाराम आ रहे।
मिटृी की दीवार पर बैठे रमैया तनिक अनमने हो उठो। देखा हो एतने बड़े सन्त कीनाराम पधार रहे हैं। उनकी आगवानी न हुई तो उनके सम्मान को बड़ी ठेस पहुचेगी।
फिर सन्त रमैया ने जिस दीवार पर बैठे थे उसी को ठोकर कहा देखा आज त हमार इज्जत तोहरे हाथ में है। तू चला त तनी कीनाराम क अगवानी होय जाय। उनकर सत्कार कयल हमार धरम है। हमरे धरम के रक्षा कै भार तोरे उप्पर।
बाबा के ऐसा कहते ही दीवार चार हाथ आगे से फट पड़ी और हवा में ऊपर उठकर चलने लगी।
बाबा कीनाराम के सामने पहुँचा कर बाबा रमैया ने झुककर जोहार किया हमार धन्य भाग है जो आप पधारे।
हम तो अवते रहे तू काहे कष्ट उठाये। बाबा कीनाराम ने धीमे मुसकाते हुए कहा।
हाथी रोककर कीनाराम जी उतर आये। रमैया दीवार से उतर आये दोनो सन्त साथ-साथ पैदल आश्रम की तरफ चलने लगे। हाथी और दीवार उनके पीछे-पीछे।
कैसा भव्य और दिव्य दृश्य रहा होगा।

आज भी कल्पना में देखकर तन सिहर-सिहर जाता है। मन पुलक-पुलक उठता है।
रमैया के कारण कीनाराम के आगमन से उनके पदस्पर्श से हमारे गाँव को भी तीर्थभूमि बनने का सौभाग्य सुलभ हो सका है। सोचकर हृदय-हृदय गदगद हो उठता है। सौभाग्य का यह रोमांच हमारे इतिहास की थाती है। अपने बचपन की इस थाती को जुगाये रखकर हम अपने को कृतार्थ अनुभव करते हैं।

किंवदन्तियों में कीनाराम‚ डा. उमेश प्रसाद सिंह

किंवदन्तियों में कीनाराम पुस्तक का प्रथम अध्याय

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