Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह
चुनाव के अंतिम चरण के नामांकन की तरीखों के बीच दिल्ली एन.सी.आर. में जोरदार आँधी आयी। इस धूल भरी आँधी ने जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। सड़क पर टूटकर गिरे हुए पेड़ों से यातायात बाधित हो गया। हरियाली क्षतिग्रस्त हुई। सबसे अधिक नुकसान आम की फसल को हुआ। आम को होने वाले नुकसान से मन बड़ा दुखी है। आम पर जब भी किसी तरह का संकट आता है, मेरा मन चिन्तित हो उठता है। मुझे लगता है, आम पर आने वाले हर संकट हमारे संस्कृति के संकट का सूचक बन जाता है। सांस्कृतिक संकट की किसी भी आहट से मन विचलित हो उठता है। स्वाभाविक है। हमारी संस्कृति ही तो हमारी अस्मिता का मूल आधार है। दिल्ली में यह आँधी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की अन्तरिम जमानत से मिली रिहाई के ठीक पीछे आई है। मुझे नहीं मालूम कि यह महज एक संयोग है या साजिश। आज कल राजनीतिक हलके में सारे संयोग को साजिश कहने का चलन हो गया है। हमारी राजनीति में इतनी गिरावट आ गई है कि सब कुछ साजिश बनकर रह गया है। सारे मान और मूल्यों के चेहरे धूल भरी आँधी में ढँक गए हैं। कुछ भी दिखाई देता है तो सिर्फ साजिश। कुछ भी सुनाई देता है तो सिर्फ साजिश।
साजिश दोगलेपन की सबसे बड़ी निशानी है। साजिश टुच्चेपन का सबसे बड़ा सबूत है। क्या हमारी समूची राजनीति दोगलेपन और टुच्चेपन की शिकार बन गई है? पता नहीं। मैं भला कैसे कुछ कह सकता हूँ। मेरी कुछ भी कहने की न तो हिम्मत है, न ही हैसियत। राजनीति के बारे में कुछ भी कहने का अधिकार केवल राजनीति के महारथियों के पास है। जब युद्ध शुरू हो जाता है, निर्णय लेने का सारा अधिकार महारथियों के हाथ चला जाता है। युद्ध के समय में जो भी प्रभाव होता है, रथियों, महारथियों का होता है। हमारे लोकतंत्र में चुनाव का समय पुराने समय के युद्ध काल से भिन्न नहीं है। लड़ाई वही है। वैसी ही है। केवल हथियार बदल गए हैं। मरने वाले आलम्बन बदल गए हैं। अब इस युद्ध में आदमी नहीं मरता। आदमी की जगह आदमी का जीवन मूल्य मरता है। हाँ, युद्ध का परिणाम कत्तई नहीं बदला है। जीतने वाले को परिणाम में राज्य मिलता है। सत्ता मिलती है। अधिकार का साम्राज्य मिलता है। हारने वाले को अवसाद, अपमान और पश्चाताप का क्षत-विक्षत विस्तार।
लोकतंत्र सूक्ष्म और उच्चतर मानवीय विचारों की शासन व्यवस्था का नाम है। हम देख रहे हैं, हमारे लोकतंत्र में निम्नतर मानवीय वृत्तियों की जंग जारी है। हमारे समय चुनाव बस नाम भर का है। मत का मूल्य कब का पददलित किया जा चुका है। मतदान का सारा अर्थ-सैदर्न्य किताबों में कैद होकर रह गया है। अब मत दान की चीज नहीं, हड़पने, हथियाने, लूटने और रौंदने की चीज बनकर रह गया है। जो कुछ भी शोभन है, सुन्दर है, प्रिय है, सब किताबों में है। जो कुछ अर्थपूर्ण है केवल भाषा में है। जमीन पर जो कुछ है, भीषण है, विद्रूप है मुमूर्ष है। ऐसा क्यों है? पता नहीं। जिस समय में आदमी का जीवन किताब की भाषा पर निर्भर रह जाता है, वह समय मनुष्यता के लिए भयानक संकट का समय होता है। मुर्दा भाषा से जीवन का संचालन कभी संभव नहीं है।
हम देख रहे हैं, चुनाव की घनघोर आँधी में हमारे जीवन के सारे मूल्य आम की तरह गिर कर धूल में मिल रहे हैं। पककर मिठास को प्राप्त होने वाले आम आँधी में अपने वृन्तों से विच्युत होकर धूल फाँक रहे हैं। हमारे लोकतंत्र की मान-मर्यादाओं की अस्मिताएँ चुनाव की आँधी में अपनी जड़ों से उलस कर प्रगति के मार्ग को अवरूद्ध करने का निमित्त बन गई हैं। संविधान में कायम की गई संसद की गरिमा सड़क पर बिखरे कूड़े में लोट रही है।
हमारे समय में राजनीति की भाषा इतनी छिछली और छिछोरी क्यों हो गई है? झूठ को सच की तरह परोसने की कला राजनीति में क्यों प्रतिष्ठित हो गई है? बिना आधार के, बिना किसी प्रमाण के बातें हवा में उछाल दी जा रही हैं। हवा में हवा बाँधकर विक्षोभ की आँधी चल पड़ती है। कहने के नाम पर कुछ भी कहा जा रहा है। कोई कह रहा है,- संविधान खतरे में है। देश खतरे में है। जनता का हित खतरे में है। जनता का सौभाग्य खतरे में है। सुहाग का चिह्न मंगलसूत्र खतरे में है। जो है ही नहीं, उसके खतरे में होने का क्या मतलब है। जनता को कुछ भी पता नहीं है। जनता सुन रही है। अपना सिर धुन रही है। जनता चुन रही है। झूठ में झूठ चुन रही है।
जो लोग इस बात से चिन्तित हैं कि हमारे समय की भाषा अपनी गरिमा से गिर गई है, उनकी चिन्ता अधूरी और अवास्तविक चिन्ता है। भाषा की किसी समय और समाज में अपनी अलग अस्मिता नहीं होती। भाषा हमारे आचरण की अभिव्यक्ति है। असल चिन्ता तो यह है कि हमारे समय में आदमी का आचरण उसका चरित्र ही पतित होता जा रहा है। आचरण के अभाव में भाषा की मर्यादा के विषय में सोचना एक तरह से सोच के पाखण्ड को ही उजागर करता है। समूची व्यवस्था में पाखण्ड ने सब कुछ को ढँक रखा है। राजनीति की मूल चिन्ता सरकार बनाने की चिन्ता है। सरकार बन जाने के बाद सरकार बचाए रखने की चिन्ता है। हमारे समय में व्यवस्था के संचालन के सारे घटक मुख्य रूप से अपने अधिकार को बनाए और बचाए रखने के काम को ही अपना कर्तव्य मान चुके हैं। वे उतना ही काम करना अपना दायित्व समझते हैं, जितने से नौकरी बची रहे। जनता का क्या? जनता बस सरकार चुनने के लिए बची रहे। इतना ही बहुत है। आँधी में आम की तरह आम आदमी डवांडोल है।
हमारे पूर्वजों ने महनीय लोकतंत्र को अपनी परिकल्पना में आम के बाग की तरह लगाया है। मनुष्यता के उन्नयन के सपने के बीज को विचार की मिट्टी में उगाया है। उसे अपने खून से सींचा है। पसीने की धार से पोषण प्रदान कर पल्लवित किया है। आम का हमारी संस्कृति में महत्तम मूल्य है। वह हमारी सौन्दर्य चेतना का आधार है। हमारी रस साधाना का स्रोत है। हमारे स्वाद की उपासना का केन्द्र है। आम के पल्लव की पवित्रता और उसके मंजरी की मादकता हमारे साहित्य की अन्तर्चेतना में सतत प्रवाहित रही है। आम की लकड़ी तक हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी महत्ता में प्रतिष्ठित है। महाकवि कालिदास कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की वाणी आम के रूप-रस-वैभव की उपासना में अद्भुत रूप में विलसित दिखती है। आम के फल का तो कहना ही क्या! अपनी भिन्न-भिन्न अवस्था में भिन्न रसों का संवाहक जैसा आम का फल है, वैसा दूसरा कोई नहीं।
हमारा लोकतंत्र का आम्रवन हमारी संस्कृतिक विरासत, हमारे सौन्दर्य बोध, हमारी रस साधना और हमारी मनुष्यता के प्रति अगाध आस्था का महनीय प्रतीक है। इसकी मिठास को पकने देने के लिए परिवेश और सुरक्षा का प्रबन्ध प्रदान करना हमारा नैष्टिक दायित्व है। अपने दायित्व बोध से स्खलित होना हमारे लिए अक्षम्य अपराध है। हमारी सजगता और सतर्कता ही लोकतंत्र के प्रति हमारी आस्था का प्रतीक है। इस प्रतीक को जीवित रखने के लिए आँधियों के प्रतिकार का प्रबन्ध हमारा सामयिक भी और सनातन भी धर्म है। आम को आँधी से पकने के लिए बचाए रखना लोकतंत्र की निष्ठा के प्रति हमारा निकष है। भारतीय जन को इस निकष पर खरा उतरने के लिए तत्पर होना आवश्यक है।
-Young Writer