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Friday, August 22, 2025

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मोहर्रमः इमाम हुसैन के आदर्श पर चलना असली मुहर्रम

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Young Writer, चंदौली। मुहर्रम सिर्फ मातम करने और इमाम हुसैन के नाम पर रोने का नाम नहीं है। मुहर्रम इमाम हुसैन के आदर्शों पर चलने का नाम है। मुहर्रम हर साल ये संदेश देता है कि समाज को तोड़ने वाले तत्वों के खिलाफ़ अगर खड़ा होना पड़े तो खड़ा होना चाहिए। बिना हिचके और बिना डरे। अजाखाना-ए-रजा में आठवीं मजलिस खिताब फरमाते हुए मौलाना अबु इफ्तिख़ार ज़ैदी ने कहा कि इमाम का जिक्र और कर्बला में उन पर ढाए हुए जुल्म की कहानी इंसानियत पर हुए अत्याचार की कहानी है। हमें इससे ये सीख लेनी चाहिए की इंसानियत को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए। सभी इंसान एक हैं और एक दूसरे की मदद बिना जाति, धर्म देखे करनी चाहिए। 

कर्बला की जंग सात मुहर्रम को शुरू हुई थी और मुहर्रम की दसवीं तारीख तक रसूलल्लाह के नवासे इमाम हुसैन और उनके बहत्तर साथी शहीद हो गए। इमाम हुसैन ने अपना सिर कटा दिया लेकिन बादशाह यजीद के आदेश नहीं माने। यजीद इमाम हुसैन के जरिए अपने थोपी गई नीतियां जनता के बीच फैलाना चाहता था, लेकिन इमाम ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। बनारस और प्रदेश की मशहूर अंजुमन कारवाने करबला के मसायबी नौहों के बीच अजाखाने में अलम और ताबूत का जूलूस भी निकला। अलम इमाम हुसैन के भाई हजरत अब्बास की बहादुरी का प्रतीक है। हजरत अब्बास युद्ध के लिए जाते वक्त अपने हाथ में अलम रखते थे वहीं ताबूत इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर की शहादत का प्रतीक है। अली अकबर अट्ठारह साल के थे जब उन्हें करबला के मैदान में यजीदी सेना ने घेरकर शहीद कर दिया। कारवाने करबला के अलावा सिकंदरपुर की अंजुमन ने भी नौहाजनी के जरिए इमाम को खिराजे अकीदत पेश की। आठवीं मजलिस के जूलूस में जिले के अलावा बनारस, मिर्जापुर, दुलहीपुर, ऐंलहीं के अजादार बड़ी संख्या में जुटे और इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद कर पुरनम आंखों से उनकी शहादत को सलाम किया। इस दौरान मायल चंदौलवी, सादिक, रियाज, अली इमाम, डाक्टर गजन्फर इमाम, दानिश इत्यादि मौजूद रहे।

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