6.6 C
New York
Tuesday, February 4, 2025

Buy now

…उत्सव उत्सव शोर मचा है

- Advertisement -

Young Writer, चुनाव डेस्क। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

‘‘बड़ा शोर है।’’
‘‘कहाँ शोर है? किधर शोर है?
‘‘चारों तरफ भाई! हर कहीं शोर भरा है। बेमतलब के शोर में हर जगह डूबी हुई है। जिसके बोलने का कोई मतलब नहीं है, वह भी बोल रहा है। क्यों बोल रहा है? अब भला कौन पूछे? पूछने का फायदा भी क्या। भोजपुरी में एक कहावत है,- ‘आन्हर कुक्कुर बतासै भौंकै।’ वैसे कुत्ते तो सारे ही भौंकते हैं। पालतू भी और गली के आवारा भी। जो दूध-बिस्कुट का नाश्ता करते हैं, वे भी और जो हर दरवाजे से दुरदुराए जाते हैं, वे भी। वे भौंकते हैं, इसलिए कि भौंकना उनका स्वभाव है। प्रायः कुत्ते किसी आहट पर भौंकते हैं। मगर जो कुत्ते अन्धे हो जाते हैं, जिन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता, वे हवा के हिलने से ही भौंकते रहते हैं। कुत्ते का भौंकना बेमतलब के बोलने को व्यंजित करने का मुहावरा है। तो क्या, हमारे समय में जो कुछ बोला जा रहा है, बेमतलब का है? अब इतनी बड़ी बात भला मैं कैसे कह सकता हूँ। कहना चाहूँ भी तो किस मुँह से कह सकता हूँ।
हमारे समय में इतने बड़-बड़े लोग हैं। इतिहास की गरिमा का बोझ अपने कन्धे पर उठाए हुए हैं। फिर भी उनके पाँव तनिक भी पिराते नहीं। भारतीय संस्कृति को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ साबित करने का भार अपने सिर पर लादे हुए हैं? फिर भी कभी थककर सुस्ताते नहीं। समाजवादी की डुगडुगी दिन-रात बजाते हैं?, बिना खाये-पिये, बिना सोये-बैठे। लोकतंत्र की हिफाजत में एक पाँव पर खड़े बिना आँख झपकाये। वे लोग बोलते रहते हैं, हमेशा बिना रुके, बिना थके। बोलना उनका शौक नहीं है। उनकी मजबूरी है। उनको बोलना पड़ता है। इतना-इतना बोलने पर भी बोलने का कोई मतलब नहीं निकलता। बड़े-बड़े लोग, बड़ी-बड़ी बातें बोलते रहते हैं। छोटे-छोटे काम बिना टस-मस हुए अपनी जगह अड़े रहते हैं। समस्याएं बहरी बनकर भैंस की तरह सुख से पगुराती रहती हैं। हमारे समय में भाषा की सारी व्यंजनाएं व्यर्थ होकर अपना सिर पीट रही हैं। ऐसा समय पहले शायद ही कभी रहा हो, जब भाषा जीवन से इस कदर बहिष्कत होकर केवल गाल बजाने को विवश रही हो। खैर, छोड़िए यह पँवारा तो बड़ा लम्बा है।
इधर जब से चुनाव की घोषणा हुई है, सरकार के सारे ढोल-नगाड़े बज उठे हैं। सब के सब उत्सव, उत्सव चिल्ला रहे हैं। लोकतन्त्र का उत्सव आ गया है। उत्सव लोक में तो कहीं नहीं है, तंत्र जरूर उत्सवमय हो उठा है। तन्त्र में हास-हुलास की चमक निश्चय ही दमक उठी है। तन्त्र उत्सव के आयोजन में व्यस्त में व्यस्त है। लोक अपनी परेशानियों में त्रस्त है। उसे रोजी-रोजगार की चिन्ता है। सिर के ऊपर छाजन की चिन्ता है। शिक्षा के निरन्तर व्यर्थ होते जाने स्वरूप की चिन्ता है। शादी-ब्याह के लिए अनियंत्रित होते जा रहे खर्च के जुगाड़ की चिन्ता है। बाजार के लगातार बढ़ते जा रहे वर्चस्व के उत्पीड़न की चिन्ता है। बराबर विखण्डित होती जा रही अपनी सामाजिक संरचना की चिन्ता है। झूठे आश्वासनों के मजबूत होते जा रहे छल के विस्तार की चिन्ता है। निरन्तर टूटकर बिखरते जा रहे जीवन विश्वासों के विलोप की चिन्ता है। लोक अनगिनत चिन्ताओं में असहाय घिरा है और तन्त्र चिल्ला रहा है, उत्सव उत्सव।
तन्त्र लोक पर उत्सव थोप रहा है। तन्त्र का उत्सव लोक के लिए प्रताड़ना के एक और आयोजन जैसा ही बनता जा रहा है। यह कुछ वैसा ही है जैसे बिना बच्चा पैदा हुए ही सोहर गाने के लिए कहना। लोकतंत्र में मतदान का यह उत्सव भारतीय समाज में जनखों की बस्ती में सोहर गाने जैसा ही मुहावरा बन कर रह गया है।
हमें कहने के लिए कहा जाता है कि दुनिया के बीच हमारा लोकतंत्र सबसे बड़ा है। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। इसका हमें गर्व होना चाहिए। सच बात है। जरूर होना चाहिए। किताबों की भाषा में यह ठीक है। मगर सचाई ऐसी क्यों नहीं है जो कुछ किताबों में लिखा गया है, वह हमारे जीवन में क्यों नहीं है। कैसी दारुण विडम्बना का दौर है कि हमारे समय में किताबें झूठी होती जा रही है। संविधान में जो कुछ लिखा है, वैसा हमारे जीवन में क्यों नहीं है? ये सवाल पूछने की हमारी व्यवस्था में इताजत क्यों नहीं है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होना हमारी उपलब्धि नहीं है। यह केवल जनसंख्या की दृष्टि से प्रचारित एक आंकड़ा है। हमारे समय में संविधान जनता के लिए नहीं रह गया है। जनता संविधान के बारे में कुछ जानती भी नहीं है। जनता के लिए संविधान केवल मजाक करने का माध्यम भर रह गया है। जैसे हमारे न्यायालयों में जो आदमी कभी गीता को देखा भी नहीं है, उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता है, उसे गीता पर हाथ रखकर शपथ खाने को कहा जाता है। गीता पर हाथ रखकर शपथ खा लेने से झूठ, सच नहीं हो जाता। संविधान का नाम लेकर कुछ भी करने से जनता का हित कभी नहीं सध सकता है। वास्तव में हमारे समय में संविधान केवल सरकार और राजनीतिक दलों के काम की चीज बनकर रह गया है। असल में हमारे समय में हमारा संविधान केवल कुछ जानकार और शक्तिशाली लोगों की मनमानी और मनचाही व्यवस्था का विषयम बनकर रह गया है। लोकतंत्र में मतदान का उत्सव संविधान की आड़ में सत्ता हथियाने का राजपुरुषों के लिए सुनहरा अवसर भर है।
सच कहा जाय तो लोकतंत्र का यह उत्सव राजनीतिक दलों का दंगल है। नाना तरह के दाव-पेंच के प्रदर्शन का अखाड़ा। जनता इसमें बस दर्शक है। जो कुश्ती जीतेगा, सत्ता उसके हाथ आयेगी। थोड़े समय के मनोरंजन के बाद जनता खाली हाथ, हाथ मलते रह जाएगी।
इस उत्सव में राजनीतिक दलों के दिग्गजों की सेना जिसमें सुर-असुर आपसी भेद को भुलाकर एक साथ जनता रुपी समुद्र को मतदान के मंदराचल से मथेंगे। जनता मथी जायेगी जैसे दही मथी जाती है। दही को मथने से मक्खन निकल आता है। जनता को मथने से जनप्रतिनिधि निकल आएंगे। जनप्रतिनिधि जनता से ही निकलेंगे। वे जनता के ही होंगे मगर जनता से अलग होंगे। हमारे जनप्रतिनिधि बाजार में मक्खन का मूल्य प्राप्त कर लेंगे। वे जहां भी बिकेंगे मक्खन के भाव बिकेंगे। जनता छाछा की तरह जहाँ है, रहेगी। रह जाएगी। आगे जब उत्सव का अवसर फिर मथे जाने के लिए। मक्खन निकल जाने के बाद छाछ की कोई कीमत रह जाती है क्या? उत्सव का शोर मक्शन बननने की उमंग का शोर है।
जनता में भयानक उदासी है। अवसाद है। पछतावा है। अपने ही विश्वासों के बार-बार टूटने की अथाह व्यथा है। वह अपने सपनों के टूटे हुए खण्डहर के मलबे पर बैठी कुछ बिसूर रही है। उसकी आँखों में आश्वासन का छल है। भहराकर गिरे हुए भरोसे का वितान है। अपनत्व के उछाह की दुरदराई हुई दुत्कार है। पाखण्ड के मेले में फटी हुई जेब में कुछ टटोलते सकताए हुए हाथ हैं। ऐसे में उत्सव कौन मनाएगा। कैसे मनाएगा। नहीं भाई, नहीं यह उत्सव नहीं है। यह सिर्फ उत्सव का विज्ञापन है।
यह उत्सव जनता का नहीं है। जनता के घर में नहीं है। यह लोकतंत्र के बाजार का उत्सव है। लोकतंत्र के व्यापारियों का उत्सव है। लोकतंत्र के अधिकारियों का उत्सव है। यह उत्सव अखबारों का उत्सव है। यह उत्सव टी.वी. के समाचार चौनलों का उत्सव है। यह उत्सव उनके लिए उत्सव है, जो कुछ भी बेचने और खरीदने की हैसियत रखते हैं। जनता के लिए तो उत्सव के दिन तभी आएंगे जब तंत्र लोक में समाहित हो सकेगा। जनता को इंतजार करना है। वह इंतजार करेगी। शोर को सहना है, सहेगी। शोर में बहना है, बहेगी। शोर की आँधी में जनता को तिनके की तरह उड़ना है, उड़ेगी। बाढ़ में बूड़ना है, बूड़ेगी। जनता इस महान उत्सव में जो महाभोज होगा उस बारात के लिए कनात-सी तन जाएगी।

Related Articles

Election - 2024

Latest Articles

You cannot copy content of this page

Verified by MonsterInsights