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Tuesday, February 4, 2025

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चंचरीक जिमि चंपक बागा

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काशी विशेषांक—–

Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से

श्री त्रिभुवन नारायन सिंह भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के एक आलोक स्तम्भ थे। वे भारतीय जनतंत्र के महान कीर्तिलेख में एक स्मरणीय अध्याय की तरह अपने समय में स्थित थे। आगाध राष्ट्रप्रेम, अटल कर्तव्यनिष्ठा, अचूक धैर्य, आचरण की पवित्रता, देश के विकास की अथक लगन और संविधान की मर्यादाओं के प्रति अटूट निष्ठा ने उनके व्यक्तित्व को लोकतंत्र के श्रृंगार की तरह सजाया था। लोकतांत्रिक आदर्श की कसौटी की तरह उनकी उपस्थिति स्वातंत्रयोत्तर भारतीय राजनीति की गरिमा को आलोकित करने वाली थी। मगर लोग उनको भूल गए हैं।
क्यों भूल गए है? यह सवाल मन को बराबर बेधता रहता है। उनका ईश्वरगंगी का मकान बड़े उदास भाव से सड़क पर आने-जाने वालों को ताकता रहता है मगर उधर कोई नजर उठाकर नहीं देखता। उन्हे कभी कोई राजनीतिक दल किसी भी अवसर पर याद नहीं करता। उनकी कभी कोई जन्मतिथि या पुण्यतिथि नहीं मनाई जाती। भूलना हमारे समय में आदमी का स्वभाव बन गया है, क्या? भूलना हमारे समय में सफलता पाने की अनिवार्य योग्यता हो गई है, क्या? शायद हाँ….हाँ….हाँ।
आज हमारा समूचा राजनीतिक परिदृश्य अपनी स्वाधीनता आन्दोलन की समूची विरासत भूल चुका है। हम अपने स्वाधीनता-संघर्ष के सारे संकल्प भूल चुके हैं। आज हमारे समय मेें हमारे सामूहिक जन-जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि जिसे हमें याद रखना था उसे हम भूल चुके हैं। जो कुछ भूलने के लिये था उसे हमने अपनी स्मृति में अंकित कर लिया है। कितना दारूण सच है, जिसे हम जी रहे हैं। मुझे त्रिभुवन नारायण सिंह को भूल जाना अपनी विरासत को भूल जाने से कत्तई भिन्न नहीं लगता। हम क्या करें? हम कर ही क्या सकते हैं। हमारे समय में तो अपनी विरासत से वंचित होने की विपन्नता ही हमारी सम्पन्नता की निशानी बनकर हमें हर वक्त चिढ़ा रही है। हम चिढ़ रहे हैं, कुढ़ रहे है। तिलमिला रहे हैं, तमतमा रहे हैं। मगर कर कुछ नहीं पा रहे हैं। बड़ा अजीब है। समूचा भारतीय जन-जीवन एक अजीब जीवन-स्थिति में पिस रहा है, मगर कुछ कर नहीं पा रहा है। जिसे हम प्राण-पण से अस्वीकार करना चाह रहे हैं, उसे ही हम स्वीकार करने को लाचार हैं। पता नहीं हमारे लोकतंत्र को किसने नजरा दिया है। न जाने किसकी टेढ़ी नजर, तीखी नजर हमारे लोकतंत्र को कलुषित और कुत्सित बना रही है। कलंकित बना रही है। खैर…..।
मुझे लगता है त्रिभुवन नारायण सिंह को याद रखना हमारे समय के लिये बेहद असुविधाजनक हो गया है। हमारे समय में व्यवस्था जिस तरह के यंत्र मानव का निर्माण करने को उद्यत है, वह उसकी पारंपरिक स्मृति को मिटाकर ही संभव है। इसीलिए इस व्यवस्था के हमला का केन्द्र हमारी जातीय स्मृति बन गई है। हमारी व्यवस्था हमारे समय के आदमी को इतिहास की स्मृति से विहीन छिन्नमूल असहाय आदमी बना देने को तत्पर है। ऐसे समय में त्रिभुवन नारायण सिंह की सादगी की स्मृति सत्ता हथियाने के लुटेरे अभियान में बहुत बड़ी बाधा है। उसे याद रखना आत्महन्ता उद्योग की तरह खतरनाक है। इसलिये याद नहीं रखना है। उनकी सत्यनिष्ठा, उनकी ईमानदारी हमारी ऐश्वर्य लोलुप लालसा के लिये दूध के कटोरे में गिरी हुई मक्खी की तरह मन बिदकाने वाली है, इसलिये उसे याद नहीं रखना है। सो हमने उन्हे याद नहीं रखा है। अपने लोक-तांत्रिक आदर्शो में अटल निष्ठा के चलते वे खुद लाल बहादुर शास्त्री के उत्तर राजनीतिक काल में राजनीति में अप्रासंगिक होते चले गए मगर उन्होने उसकी कत्तई परवाह नहीं की। उनके कदम अपनी धुन में कहीं और चले जा रहे थे, राजनीति का रास्ता कहीं और चला जा रहा था। सर्वेश्वर की कविता इस नियति की मार्मिकता को बड़ी विदग्धता से व्यंजित करती है-
हम कहीं और चले जाते हैं, अपनी धुन में,
रास्ता है, कहीं और चला जाता है।‘‘

वे स्वतंत्र भारत की पहली निर्वाचित सरकार के पं0 जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में महत्वपूर्ण मंत्री थे। इससे देश में उनकी राजनैतिक हैसियत का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। गाँधी के जीवनादर्शों और जीवन मूल्यों को अपनी जिन्दगी में धारण करने वाले वे अप्रतिम पुरूष थे। आजादी उनके प्राण की प्यास थी। देश सेवा उनके जीवन का परितोष था। पद उनके लिये गर्व और गौरव की चीज नहीं था। केवल अपने कर्तव्य की अभिव्यक्ति का माध्यम था। विशिष्टताबोध का उनमें नितान्त अभाव था। वे जहाँ कहीं भी थे, सहज थे। सामान्य थे। वे गाँधीवादी नहीं थे। गाँधीवाद उनके लिये कोई वाद नहीं था। कोई दर्शन नहीं था। कोई अवधारणा नहीं था। जो कुछ थोड़े से लोग गाँधी के साथ गहन तादात्म्य की स्थिति को प्राप्त कर सके थे, उन्ही लोगो में से वे एक थे। गाँधी की विचार और आचार पद्धति उनकी भी अपनी आन्तरिक अभीप्सा थी।
त्रिभुवन नारायण सिंह का जन्म वाराणसी के ईश्वरगंगी मुहल्ले में 08 अगस्त 1904 को हुआ था। उनकेे पिता का नाम प्रसिद्ध नारायण सिंह था। वे चार भाई थे। ईश्वरगंगी मुहल्ला वाराणसी का एक मुहल्ला होकर भी शहर के बीच एक बड़े गाँव जैसा था। शहर के बीच में शहर होने से बचा हुआ गाँव। गाँव का रहन-सहन और तौर-तरीका वहाँ जीवित और जीवन्त था। भारतीय ग्रामीण जीवनबोध का उन्हे गहरा और आत्मिक अनुभव था। वाराणसी के हरिश्चन्द महाविद्यालय से उन्होने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी।
स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री, जय जवान, जय किसान के मंत्र के उद्गाता लाल बहादुर शास्त्री उनके अभिन्न सहपाठी मित्र थे। गाँधी जी के आह्वान पर अध्ययन अध्यापन छोड़कर भारत माँ को गुलामी की यातना से मुक्ति दिलाने के संघर्ष में कूद पड़ने वाले अनेक स्वनामधन्य लोगांे में त्रिभुवन नारायण सिंह भी एक प्रमुख और स्मरणीय व्यक्तित्व के रूप में अपना ऐतिहासिक महत्व रखते हैं।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में निर्मित राजनेताओं में प्रायः महत्वपूर्ण लोगों में यह विशेषता दिखती है कि पत्रकारिता से उनका गहरा जुड़ाव रहा है। सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ बौद्धिक विमर्श में उनकी गहरी संलग्नता खास मायने रखती है। वैचारिक धरातल के निर्माण और उन्नयन के लिये पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय सहभागिता स्वाधीनता आन्दोलन में वैचारिक केन्द्र की सशक्त अभिव्यक्ति का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। आज की विचार-विहीन राजनीति के समक्ष उस दौर की विचारपूर्ण राजनीति की विरासत भूलने की चीज नहीं है। त्रिभुवन नारायण सिंह शुरू से लेकर जीवन में लम्बे समय तक ‘डेली टेलीग्राफ‘ ‘हिन्दुस्तान टाइम्स‘ और ‘नेशनल हेराल्ड‘ समाचार पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहकर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को बराबर अभिव्यक्त करने में संलग्न रहें। उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का यह बेहद मूल्यवान पक्ष अत्यन्त ही स्मरणीय और प्रेरणाप्रद है।
उन्होने एक वर्ष काशी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य भी किया था। अध्यापन और पत्रकारिता से जुड़कर राजनीति की गरिमा किस तरह उद्भासित हो उठती है, यह सोचकर मन रोमांचित हो उठता है। आमजन की राजनीति का रंग त्रिभुवन नारायण सिंह के व्यक्तित्व में अपनी पीढ़ी के संपूर्ण वैशिष्टय के साथ बड़ा साफ और आकर्षक दिखाई पड़ता है।

भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्री, योजना आयोग के सदस्य, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में उनकी सेवाएँ राजनीतिक क्षेत्र में निर्विवादिता और निष्कलुषता की मिशाल की तरह आज भी हमारी स्मृति में प्रतिष्ठित हैं।
त्रिभुवन नारायण सिंह की स्मृतियाँ बचपन से ही मेरे उपर छायी हुई हैं। उनका प्रभाव निरन्तर गाढ़ा और गहरा ही होता रहा है। उनको याद करते हुए तमाम घटनाओं और दृश्यों की भीड़ ठेलमठेल मचाने लगती है। उन सबका प्रकाशन न तो संभव ही है, न समीचीन ही।
हमारे बाबा उमराव सिंह बताते थे कि पहली बार बाबू त्रिभुवन नारायण सिंह उन्नीस सौ बावन के आम चुनाव में प्रचार के लिये हमारे गाँव मेें पं. कमलापति त्रिपाठी के साथ हाथी पर बैठ कर आएं थे। उन दिनो गाँव में आने जाने के लिये रास्ते नहीं थे। केवल हाथी या घोड़े की सवारी ही यात्रा का साधन हुआ करता था। हमारे बाबा स्वतंत्रता सेनानी थे। वे कांग्रेस की जिला कमेटी के अध्यक्ष भी रह चुके थे। चूँकि हमारा गाँव सन् उन्नीस सौ उन्तालीस के करबन्दी आन्दोलन में कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन का केन्द्र रह चुका था। यहाँ के गोलीकाण्ड की गूँज राष्ट्रीय स्तर पर ख्यात थी। यहाँ की घटना को लेकर पं. जवाहर लाल नेहरू ने काँग्रेस की तरफ से वक्तव्य जारी करके सीधे हस्तक्षेप किया था, इसलिये हमारे गाँव की पहचान काँग्रेस के केन्द्र के रूप मेें हो चुकी थी। उनका हाथी हमारे दरवाजे पर आकर रूका था। उन लोगो ने यहीं रात्रिविश्राम किया और यहीं से कांग्रेस के लिये वोट मांगने का अभियान प्रारम्भ किया। उन दिनों त्रिभुवन नारायण सिंह चन्दौली संसदीय सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार थे और पं.कमलापति त्रिपाठी चकिया विधान सभा सीट से। बाबा बताते थे कि पहली बार आकर ही उन्होने कहा था कि आपका घर हमारे लिये अपने घर जैसा है। फिर त्रिभुवन नारायण सिंह और पं. कमलापति त्रिपाठी जी ने जीवन पर्यन्त हमारे घर को अपना घर माना। तब से लेकर जब तक वे लोग जीवित रहे वर्ष में दो बार बराबर हमारे घर आते रहे। त्रिभुवन नारायण सिंह को हरे चने की पकौड़ी और कमलापति जी को दहीबड़ा बहुत पसन्द था इसलिये चने के मौसम में उनका आना प्रायः सुनिश्चित होता था। चाहे वे जहाँ और जिस पद पर रहे मगर उनका वह कार्यक्रम चलता रहा। कांग्रेस के बँटवारे के बाद जब टी0एन0 सिंह संगठन कांग्रेस में हो गए और पण्डित जी सत्तारूढ़ कांग्रेस में। फिर उनके आने के समय अलग-अलग हो गए।
त्रिभुवन नारायण सिंह बड़े स्नेहिल, सादगी पसंद और ईमानदार व्यक्ति थे। उनकी सादगी और ईमानदारी उनकी आत्मिक ऊँचाई को भव्यता से मण्डित करती थी, जो बड़ी ही आकर्षक थी। अपनी सारी विशिष्टताओं के बीच उनकी सामान्यता ही उनके जीवन की सबसे मूल्यवान निधि थी। उनके जीवन में जो सबसे अधिक मूल्यवान था वह सबके लिये सुलभ था।

 एक घटना की धुँधली-सी याद अब भी स्मृति में बिल्कुल अपने टहक रंग में टँकी है, जो अब भी हृदय को हुलसा देती है। तब मैं बहुत छोटा था लगभग पांच छः बरस का। हमारे गाँव के प्राइमरी स्कूल पर वोट पड़ रहा था। सारे गाँव की भीड़ वहाँ जमा थी। मैं भी भीड़ में बच्चों के साथ था। उस दिन कांग्रेस की प्रचार सामग्री में सीने पर पिन से टाँकने वाला बिल्ला नही था। तब कांग्रेस का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोडी  हुआ करता था। सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव चिह्न बरगद का बिल्ला लगाकर हमारे साथी हमें चिढ़ा रहे थे। मेरा मन अपनी शर्ट में बिल्ला लगाने को बेहद मचल रहा था। मगर वैसा संभव नहीं था। खैर बहुत देर तक मैं किसी तरह अपने को जब्त किये रहा। मगर कब तक? आखिर धैर्य की भी एक सीमा होती है। आखिर बहाना बना कर मैं वोट डालने की जिद पर अड़ गया और रोने लगा। किसी के समझाने का कोई फायदा नहीं हुआ। समझाने वालों के सारे तर्क मेरे लिये बेमतलब और व्यर्थ थे। उसी बीच पोलिंग बूथ का भ्रमण करने त्रिभुवन नारायण सिंह आ पहुँचे। मैं और तेज रोेने लगा। उन्होने मेरे रोने का कारण पूछा। बाबा ने कारण बता दिया। फिर सबसे पहले उन्होने अपने कुर्ते से बिल्ला निकालकर मेरी शर्ट में टाँक दिया। फिर अपनी रूमाल से मेरे आँसू पोंछ कर गोद में उठा लिया। मुझे गोद में लिये वे पोलिंग बूथ के अन्दर गए। फिर अपना मतपत्र लेकर उन्होने मुहर मेरे हाथ में दे दी। मैंने मुहर दो बैलों की जोड़ी पर लगा दी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने वह बाजी मार ली थी जो मेरे उम्र के किसी को किसी भी तरह नहीं मिल सकती थी। उस वक्त जैसी खुशी मैं महसूस कर सका था, वैसी या उस टक्कर की किसी दूसरी खुशी की मुझे याद नहीं है। इतनी बड़ी खुशी उपलब्ध कराने के कारण वे बहुत बचपन में ही मेरे बहुत निकट बन गए थे। बचपन की वह निकटता जीवन पर्यन्त अनायास बढ़ती ही गई। वह याद आज भी मुझे रोमांचित कर देती है। एक रात हुए बच्चे के भीतर खुशी का तूफान भर देने की शक्ति ही राजनीति की वास्तविक शक्ति है. क्या, मन बार-बार पूछ पड़ता है।
 एक बार लोहिया जी ने नेहरू जी से त्रिभुवन नारायण सिंह की शिकायत कर दी थी कि ये अपने चुनाव क्षेत्र में जाते हैं तो ठाकुरों के यहाँ हुक्का पीते हैं। उनका आरोप जातीयता की भावना को उभारने का आरोप था। नेहरू जी ने उन्हे बुलाकर जब इस बनिस्पत पूछा तो उन्होने ईमानदारी और दृढ़ता के साथ बताया कि हाँ मैं हुक्का पीता हूँ। घर में भी पीता हूँ और प्रचार के दौरान भी जहाँ व्यवस्था रहती है पीता हूँ। क्या हुक्का पीना गलत काम है? सिगरेट पीना ठीक है? नेहरू जी मुस्कुरा कर रह गए थे। यह बात उन्होने मेरे दरवाजे पर हुक्का पीते समय हँसते हुए बताई थी।
 एक बार जब वे केन्द्र में भारी उद्योग और इस्पात मंत्री थे, उनके बड़े लड़के रूस में इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। समाजवादी नेता राजनारायण जी ने उन पर आरोप लगा दिया कि इन्होने अपने पद के प्रभाव का दुरूपयोग करके लड़के को इंजीनियरिंग पढ़ने भेजा है। त्रिभुवन नारायण सिंह बड़े दुखी हुए। उन्होने चुनौती दी कि राजनारायण जी प्रमाणित करें कि मैंने अपने प्रभाव का दुरूपयोग किया है। अगर ऐसा है तो मैं तत्काल अपने पद से इस्तीफा देता हूँ। अगर हमारे संविधान में ऐसी व्यवस्था है कि किसी मंत्री के लड़के का इंजीनियरिंग पढ़ना अपराध है तो मैं इस्तीफा देता हूँ। उनकी ईमानदारी और दृढ़ता के सामने राजनारायण जी को झुकना पड़ा और उन्होने अपने आरोप के लिये माफी माँगकर मामला शान्त किया।
 त्रिभुवन नारायण सिंह की राजनैतिक मूल्यनिष्ठा के दो अप्रतिम उदाहरण भारतीय राजनीति के अविस्मरणीय दस्तावेज हैं। पहला उदाहरण है जब वे 18 अक्टूबर 1971 को उत्तर प्रदेश की संविद सरकार के मुख्य मंत्री मनोनीत हुए थे। चूँकि वे विधानमण्डल दल के सदस्य नहीं थे, इसलिये उन्हे उपचुनाव लड़ना था। इंदिरा गाँधी ने लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध मृत्यु के बाद से शास्त्री जी के निकटतम मित्र होने के कारण त्रिभुवन नारायण सिंह को सक्रिय राजनीति से दूर रखने की नीति अपना रखी थी। उपचुनाव में उन्हे हराने के लिये इंदिरा जी ने केन्द्र सरकार की सारी शक्ति उड़ेल दी। चन्द्रभान गुप्त जी ने  त्रिभुवन नारायण सिंह से कहा कि इंदिरा जी का षड़यन्त्र नाकाम करने के लिये हमें सरकार की शक्ति का उपयोग करने की छूट दो। मगर उन्होने सरकारी शक्ति का इस्तेमाल चुनाव के लिये असंवैधानिक बताकर कत्तई उपयोग के लिये मना कर दिया। वे मुख्यमंत्री रहते चुनाव हार गए। उन्होने चुनाव हार कर संविधान की मर्यादा की रक्षा की। उनका यह अपूर्व त्याग लोकतंत्र के लिये सदैव स्मरणीय बना रहेगा।
 दूसरा उदाहरण पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के पद से त्यागपत्र का मामला है। जनता दल की सरकार के पतन के बाद इंदिरा गांधी प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्तासीन हुई। इंदिरा जी ने त्रिभुवन नारायण सिंह से कहलवाया कि वे कलकत्ता छोड़कर जयपुर चलें जाएँ। राजस्थान के राज्यपाल का राजभवन सबसे अधिक भव्य हैं। मगर उनकी सलाह को उन्होने संवैधानिक मर्यादा की अवहेलना समझा और 12 सितम्बर 1981 को राज्यपाल के पद से त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र देकर उनके काशी लौटने के बाद जब मैं उनसे मिला था तब उन्होने कहा था  कि देखो जिस इंदिरा को मैने गोद में खिलाया है, वह अब मुझे राजनीति की शिक्षा दे रही है। त्रिभुवन नारायण सिंह के बारे में जब भी मैं कुछ सोचता हूँ मुझे तुलसीदास की चौपाई याद आती है,-
       ‘‘तेहि पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा।ʺ
 भरत अयोध्या का राजकाज देख रहे थे। मगर राजा बनकर नहीं। राजा राम थे और राम का काम भरत सँभाल रहे थे। त्रिभुवन नारायण सिंह राजकाज देख रहे थे। राज भारत की जनता का था। वे उसका काम उसकी तरफ से देख रहे थे। मैं नहीं जानता भ्रमर चम्पा के बाग में चम्पा की सुवास और उसके पराग से विल्कुल अनासक्त कैसे रहता है। मगर तुलसीदास जानते हैं कि भरत अयोध्या के वैभव से बिना राग के अयोध्या में राम में तन्मय होकर कैसे रहते थे। मैने भी त्रिभुवन नारयण सिंह को सत्ता के केन्द्र में रहकर सत्ता के समस्त सुखो से उदासीन, निरासक्त रहते देखा है। मौजूदा मूल्यहन्ता राजनीति के चिन्ताजनक समय में हम जब भी मूल्यनिष्ठ राजनैतिक विकल्प के स्वरूप के बारे में चिन्तन को उन्मुख होंगे त्रिभुवन नारायण सिंह की स्मृति जरूर हमें विश्वास और बल प्रदान करेगी। हमें जिन्हे याद रखना था मगर हम भूलते जा रहे हैं, उनमें एक नाम त्रिभुवन नारायण सिंह का भी है। मैं उनकी और उनकी विरासत की स्मृति को सादर नमन करता हूँ।

सम्पर्क
डा. उमेश प्रसाद सिंह
प्राचार्य
माँ गायत्री स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय
हिंगुतरगढ़-चन्दौली-232105
मो0- 9450551160

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