Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
अँधेरा था, – अथाह, अपार, अभेद्य।
उदासी थी, – अतल, अगम्य, अफाट।
अन्तराल था, असीम।
अन्तराय थे, अनगिनत उन्मत्त अट्टहास करते हुए।
वह अकेला था। एक अँधेरे टीले पर एक हाथ की हथेली पर दूसरे हाथ की मुट्ठी को धुनता हुआ।
सामने खजुराहो के राज प्रासाद से उठती आग की विकराल लपटें थीं, सर्वस्व को स्वाहा करती हुई।
वे लपटें एक चिता की लपटों से लिपटी हुई थी। एक चिता जिसमें उसका सबसे प्रिय, उसके जीवन का सबसे अधिक अनमोल जल चुका था।
वह श्री हर्षदेव द्वारा स्थापित धंगदेव, गंडदेव द्वारा पोषित चन्देल साम्राज्य के पतन का द्रष्टा, अपराजेय योद्धा धवलकीर्ति परम भट्टारक विद्याधर देव का पौत्र कीर्तिवर्मा था।
कीरत के अन्तर से एक शंखनाद गूँज रहा था, – मैं तुझे लांघ जाऊँगा। इस गूँज को सुनने वाला कोई नही था। था केवल,-कीरत, कीरत, कीरत।
एक चिता और जल रही थी, वाराणसी के हरिश्चन्द घाट पर। वह चिता एक पिता के पराजित संघर्ष की चिता थी। उस चिता पर असहायता से हत जिजीविषा का शव रखा था। वह चिता एक रचनाकार के, जो न दैन्यं न पलायनं के मंत्र का अटल उपासक था के बेटी की चिता थी। वह अकाल काल कवलित मंजु की चिता थी। उस चिता में शिव प्रसाद सिंह के जीवन का सबसे मूल्यवान उनका छोह जल रहा था। उनका दुलार जल रहा था। चारो तरफ अँधेरा था, उदासी थी, अन्तराल था, अन्तराय था।
शिव प्रसाद सिंह के अन्तर में एक शंखनाद गूँज रहा था, – ’’मैं तुझे लाँघ जाऊँगा।’’ वहाँ बहुत से लोग थे, परिजन थे, शिष्य थे, मित्र थे, शुभचिन्तक थे। वह गूँज कोई नही सुन रहा था। सुन रहे थे,- केवल शिव प्रसाद सिंह।
’नीलाचाँद’ केवल एक उपन्यास नहीं है। एक घटना है। एक परिघटना है। इसमें रचनाकार और रचना के संकल्प और संघर्ष अभिन्न हो उठे हैं। हजारों वर्षो के अन्तराल को उलाँघ कर मनुष्य के आन्तरिक चेतन धरातल के केन्द्र का स्फोट एक हो उठा है। ’नीलाचाँद’ एक उदाहरण बन सका है, इतिहास से इतिहास के अतिक्रमण का। इतिहास से वर्तमान के अतिक्रमण का। वर्तमान से इतिहास के अतिक्रमण का। विश्वास से व्यक्तित्व के अतिक्रमण का। ’नीलाचाँद’ परम्परा से परम्परा का भी अतिक्रमण है।
साहित्य का मूल स्वभाव काल के अतिक्रमण का स्वभाव है। बहुत सी चीजों, स्थितियों और चित्तवृत्तियों के सम-विषम घात-प्रतिघात को मनुष्य जाति की स्मृति में अँकित, सुरक्षित और संरक्षित कर देने का उद्योग साहित्य का मुख्य उद्योग है। काल की अविच्छिन्नता भारतीय चिन्तन परंपरा का मूल आधार है। इस परंपरा को खण्डित करने का अपराध आधुनिक चिन्तन की रूढ़ अवधारणा से उत्पन्न विकृति का परिणाम है। मनुष्यजाति के जीवन की चित्तवृत्तियाँ कालखण्डो में विभाजित नहीं है। इतिहास और वर्तमान कम से कम एक-दूसरे के विलोम तो नही ही हैं। जैसे हमारे समाजिक जीवन में हमारी संकीर्ण साम्प्रदायिक सोच का दुष्परिणाम हिन्दू और मुसलमान को एक-दूसरे के विलोम के रूप में प्रतिष्ठित करने की अपराधी है, वैसे ही आधुनिक चिन्तन की विकृति हमें इतिहास और वर्तमान को परस्पर विरोधी और विजातीय मनवाने की उत्तरदायी है। शायद यही कारण है कि प्रायः हम ऐतिहासिक उपजीव्य के लेखन के सन्दर्भ में शव साधना के प्रतीक की कभी इधर और कभी उधर के पक्ष में व्याख्या में उलझकर रह जाते हैं। हमारे विचार के केन्द्र में इतिहास प्रधान हो जाता है, साहित्य गौड़। साहित्य की रचना के प्रभावांकन में रचना का गौड़ हो जाना कितना दुर्भाग्य जनक है, कहने की जरूरत नहीं। शायद यही कारण है कि हिन्दी में एक समय ऐतिहासिक लेखन की पहचान ऐतिहासिक आंचलिकता बन गई थी। ’नीलाचाँद’ ऐतिहासिक आंचलिकता के व्यामोह से प्रायः मुक्त उपन्यास है।
इतिहास में जाने के अनेकों कारण होते हैं। कभी-कभी तो कोई केवल रोमांच के लिये इतिहास में चला जाता है, फिर वहाँ जाकर खुद खो जाता है। इतिहास में जाकर अपने को और अपने समय को भूल जाना एक ऐसी दुर्घटना है, जिसे सिर्फ उससे बचने के लिये याद रखना जरूरी रह जाता है। कभी-कभी कोई इतिहास में मनोरंजन के लिये भी चला जाता है और विस्मृति के गर्भ में खोई चीजों को उलट-पुलट कर ताजगी का मजा पाने की कोशिश करता है। कभी-कभी कोई महाराज मुचकुन्द की तरह अपने संघर्षो से थका-माँदा अबाध विश्राम के लिये भी इतिहास की गोद में चला जाता है। मगर एक रचनाकार का इतिहास में जाने का मकसद कुछ और ही होता है। वह जीवन सत्यों की गहराई में जमी जड़ो की पहचान के लिये जाता है। वह चेतना की आन्तरिक सतह में होने वाले उद्वेलनों की अन्तक्रियाओं के उलझे छोर ढूढ़ने जाता है। वह जाता है, अपने समय की दिगन्तव्यापी यातना से मुक्ति के लिये आश्वासन की छाँव तलाशने। एक रचनाकार का इतिहास में जाना अपने समय के असहन्य दबाबो के उत्क्षेप के कारण ही घटित होता है। शिव प्रसाद सिंह मनुष्य जीवन के गहरे सरोकारों के सजग रचनाकार हैं। ’नीलाचाँद’ उपन्यास में अपने समय की भीषण विभीषिका का ताप और परिताप उसके आन्तरिक संघठन में स्पष्ट परिलक्षित होता है। साहित्य में यथार्थ केवल चित्रों में ही नही होता ध्वनियों में भी होता है और ध्वनियों के रंग और ढंग अनगिनत हैं।
किसी भी रचना का मूल स्रोत अपने सामयिक जीवन की विडम्बनाओं में व्याप्त होता है। किसी भी व्यवस्था का ढाँचा और उसकी प्रणाली उसके अच्छे और बुरे होने की उत्तरदायी नही होती। मुख्य चीज तो व्यवस्था के संचालन के घटकों की भूमिका होती है। व्यवस्था का जनपक्ष के प्रति प्रतिबद्धता का व्यवहार होता है। ’नीलाचाँद’ में तीन राजवंशो के चरित्र का चित्र आपको देखने को मिलेगा। एक वंश है,गाहड़वालों का जिसका नेतृत्व नृपति चन्द्रदेव के हाथ में है और जिसके संचालन का जिम्मा युवराज गोविन्द के कन्धो पर है। गाहड़वाल राजवंश अपनी आन्तरिक विवशताओं और अक्षमताओं के चलते कहने भर को राजवंश बचा हुआ है। काशी के कुछ हिस्सों पर ही केवल एक अपमानजनक सन्धि के चलते उसकी राजसत्ता अवशेष है। आर्य रज्जुक एक अद्भुत चरित्र के अन्यतम राजपुरूष है, जो अपनी नैतिकताओं में अनुकरणीय हैं। वे दम्भी और उदण्ड युवराज के अपमानों के कड़वे घूँट पीते रहने के बावजूद इस राजवंश के उद्धार के अपने संकल्प पर अडिग अग्रसर हैं। आर्य रज्जुक गाहड़वाल के चलते ही कीर्तिवर्मा के काशीवास का केन्द्र यह राजकुल बनता है।
एक राजवंश है कलचुरी लक्ष्मीकर्ण का। वाराणसी के अधिकांश पर आधिपत्य कायम करके कर्णघण्टा के कर्णमेरू में उसकी राजसत्ता अधिष्ठित है। अपनी श्रेष्ठता को राजवंशो पर थोपने के लिये वह अपने को सप्तम चक्रवर्ती घोषित करने का प्रबल आग्रही है। कर्ण चाटुकारो को सम्मानित करता है, विद्वानो को अपमानित करता है। उसके अधिकारी स्वेच्छाचारी और भोग वासना में डूबे हुए है। प्रजा का उत्पीड़न उसके शासन में अबाध जारी है। कृष्णमिश्र के शब्दों में कर्ण भी अपने को आर्य कहता है। वह भी आर्य रक्त का संवाहक है। वह भी माहेश्वर है। फिर भी कर्ण ने चन्देलवंश की परम विदुषी और अप्रतिम सुन्दरी राजरानी तारा देवी को पाने की वासना में युद्धविरत देववर्मा की हत्या कर दी। खजुराहो के राज प्रासाद को अग्नि के हवाले कर दिया। राजकोश लूट लिया। खजुराहो के विश्व पूजित मन्दिरों का सर्वनाश कर दिया।
एक राजवंश है, चन्देलों का। विश्वविश्रुत परम भट्टारक अप्रतिहत योद्धा विद्याधर देव की गरिमामय विरासत का उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा सत्ताच्युत राजकुमार है। आर्य परंपरा और भारतीय जीवन के गरिमामय मूल्यों की प्रतिष्ठा कीरत का ध्येय है। अपने पादाक्रान्त राजसत्ता की पुनर्प्रतिष्ठा का संकल्प कीरत के जीवन का केन्द्र है।
कलचुरी कर्ण और कीर्तिवर्मा का संघर्ष आर्य-अनार्य का संघर्ष नही बल्कि एक पतित आर्य के अनार्य आचरण के विरूद्ध आर्य जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा का संघर्ष है। इस उपन्यास में युद्धों का बड़ा रोचक और रोमांचक वर्णन बड़े विस्तार में है मगर युद्ध के मूल में हर कहीं मूल्य निष्ठा प्रतिष्ठित है।
कर्ण के शासन की उत्पीड़न की दलन की, दमन की, प्रवंचना की प्रत्येक घटना में हमारे लोकतन्त्र के महनीय मूल्यो के ह्रास की प्रतिध्वनि इस उपन्यास में अन्तर्भुक्त है। खजुराहो के मन्दिरों की अग्नि लीला में हमारे अपने समय केे सद्भाव और सहिष्णुता के पूज्य प्रतिष्ठानों की विध्वंस लीला भी समाहित है। किसी मन्दिर का और राज प्रसाद का ध्वस्त हो जाना या कि भस्म हो जाना उतना यातनादायक नही होता जितना कि सदियों के संघर्ष से सृजित और उपोषित मूल्यों का, विश्वासों का विनष्ट हो जाना पीड़ादायक होता है। एक गर्वोन्नत जाति के लिये यह पीड़ा से हजार गुना मारक लज्जाजनक पीड़ा होती है। हमारे समय की लज्जाजनक पीड़ा का दर्द ’नीलाचाँद’ में कीरत कोे बार – बार उन्मथित करने वाले दर्द में प्रतिविम्बित दिखाई दे जाता है। इतिहास की छाया जब वर्तमान के चेहरे को आच्छादित करती है, बहुत आसानी से दिखाई दे जाती है मगर जब वर्तमान की फूँक इतिहास के सोये शंख में बजती है, सुन पाना कठिनाई से संभव हो पाता है। ऐतिहासिक उपन्यास का पाठ अपेक्षाकृत कठिन और जटिल पाठ होता है।
’नीलाचाँद’ उपन्यास में चरित्रों और घटनाओं का महामेला है। चरित्रों का गठन प्रवृत्तियों पर अवलम्बित है। दो तरह के चरित्र पूरे उपन्यास में दिखाई पड़ेगंे। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- ’’द्वौं भुतसर्गौ लोकेस्मिन दैव आसुर एव च’’। इस अपार जनसमूह में समस्त मनुष्यों की दो प्रजाति है। एक प्रजाति लोकहित की साधना में निरत है, एक प्रजाति आत्महित को साधने में व्यस्त। बाणभट्ट की आत्मकथा में एक जगह आचार्य द्विवेदी ने कहा है,- ’सत्य वह है, जिससे लोक का आत्यन्तिक कल्याण होता है’। प्रधानवस्तु लोककल्याण है, वह जिससे सधता है, वही सत्य है, वही धर्म है, वही राजनीति है। ’नीलाचाँद’ की तमामतर कथाओं, उपकथाओं में साध्य यही लोक कल्याण है। कीरत, कीरत के संरक्षक, सहयोगी, शुभचिन्तक जो चरित्र हैं, उनका संघठन लोक कल्याण की साधना का अन्वेषी है। आर्यरज्जुक, सेनापति गोपालभट्ट, सेनापति अनन्त, सुबोधदेव, माँ शीलभद्रा, पाशुपताचार्य ऋतध्वज और वृषध्वज, गोमती, मीनाक्षी, सुनन्दा, बब्वरनट, लोचनगोड़, सूरजकाका, रामचन्दर केवट, भरत डोम, बलदेव ओझा आदि के साथ चरित्रों की पूरी फौज है, जो अलग-अलग जीवन क्षेत्रो से सम्बद्ध होते हुए भी परस्पर सौहार्द और सहिष्णुता की मिसाल बन कर खड़ी है। दूसरी तरफ कलचुरी लक्ष्मीकर्ण, उसकी सौन्दर्य गर्विता हूणरानी आवल्ल देवी, सेनापति अश्वगंध, रूद्रपाल, दिद्दापाल, जामाता जातवर्मन, राजकुमारी वीरश्री, यशकर्ण, कौलाचार्य चण्डेश्वर और विनायक भट्ट जैसे चरित्र हैं जो आत्मसुख के लिये जगत को केवल अपना साधन समझते हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए महाभारत में एक जगत युधिष्ठिर से कीे हुए ऋषि माण्डव्य के वचन बराबर याद आते है,- ’’राजन! जो मनुष्य अपने सुख में उतरा नहीं जाता है और जो मनुष्य अपने दुख में डूब नहीं जाता है, वही मनुष्य, मनुष्य है। उसी मनुष्य में धर्म प्रतिष्ठित है। नीलाचाँद में धर्म के पाखण्ड की अप्रतिष्ठा और धर्म की आत्मदीप्ति की प्रतिष्ठा का अद्भुत आयोजन है।
इतिहास वह नहीं है, जो आज नहीं है। वह तो खण्डित आधुनिक दृष्टि का विकार है। मनुष्य का जीवन सिर्फ उतना ही नहीं है, जितना प्रगट है। जो कभी प्रगट होकर आज अप्रगट है, वह भी जीवन में समाहित हैै। जो आज प्रगट होकर कल अप्रगट हो जाने को आकुल है, वह भी जीवन का अंग है। जो आज अप्रगट होकर भी कल प्रगट होने के लिये मचल रहा है, वह भी जीवन का हिस्सा है। मनुष्य का, मनुष्य जाति का जीवन बड़ा विचित्र है। इस विचित्र मनुष्य जाति के जीवन का सम्यक चित्र ही साहित्य है। साहित्य अस्तित्व की व्यापकता का सन्धान है। शिव प्रसाद सिंह साहित्य की भारतीय चिन्तन परम्परा के उन्नायक रचनाकार हैं। उनकी दृष्टि खण्डित की नहीं समग्र की उपासक है। वे काल और कर्म दोनों की समग्रता के उपासक रचनाकार हैं। उनके लिये आधुनिकता परम्परा से पृथक नहीं है। उनके लिये परम्परा आधुनिकता के विपरीत नहीं है। वे संश्लेषण की प्रक्रिया के मर्म को बूझने के मार्ग के संधान के आग्रही रचनाकार हैं। परस्पर विरूद्धों के समाहन की प्रक्रिया में समाहित हो सकने का मार्ग ही साहित्य का अपना रास्ता है। साहित्य की अपनी शक्ति है। साहित्य का अपना सौन्दर्य है।
पारंपरिक भारतीय इतिहास दृष्टि का बड़ा सुन्दर आधार महाभारत में व्यक्त है। अपने इतिहास काव्य में अपने समय के तमाम पेंचीदे प्रश्नो के समाधान स्वंय तहर्षि व्यास ने पुराने दृष्टान्तों के माध्यम से किये है। पूरे के पूरे शन्ति पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर के अधिकांश सवालो का जवाब पितामह भीष्म ने पुराख्यानो के उदाहरणों से दिया है। हमारी पारंपरिक दृष्टि में बीता हुआ काल मृत नहीं है। मृत का मृत से नहीं। मृत का जीवित से नहीं। जीवित का मृत से नहीं। जीवित का जीवित से संश्लेषण इतिहास लेखन का आधार है। विश्वास वह चिरजीवित शक्ति है, जो हजार बार मरकर भी कभी नहीं मरता। ’नीलाचाँद’ उस विश्वास की प्रतिष्ठा की रचनात्मक उपलब्धि है, जिसे उसका रचनाकार अमोध इच्छाशक्ति कहता है। यह इच्छाशक्ति मनुष्य में हमेशा ही उससे अभिन्न हर काल में मौजूद है।
’नीलाचाँद’ उपन्यास का मूल प्रतिपाद्य अपनी खोई हुई विरासत की पुनर्प्रतिष्ठा है। समूचे उपन्यास की मूल अन्तर्ध्वनि ओज की ध्वनि है। समूची कथा भाषा में ओज की अन्तर्दीप्ति देखने लायक है। इस भाषा में थोड़ा अलग तरह का ताप दिखाई पड़ता है। वह ताप अनुभव की तीक्ष्णता का ताप है। कथात्मक भाषा में यह तीक्ष्णता उपन्यास को अपनी पूर्व परम्परा से अलग स्थिति प्रदान करती है। ’नीलाचाँद’ की भाषा स्वंय शिव प्रसाद सिंह के पूर्व के प्रसिद्ध उपन्यास अलग-अलग वैतरणी ’और गली आगे मुड़ती है’ से भिन्न भाषा है। यहाँ अलग-अलग वैतरणी की बिम्बधर्मिता और सांकेतिकता की जगह सपाट भाषा की मारकता नये रूप में लक्षित की जा सकती है। भाषा में अभिधा की शक्ति का विस्तार अपनी स्पष्टता और तीक्ष्णता में ध्यान खींचता है। ’नीलाचाँद’ की भाषा में मर्यादा के भीतर जो स्पष्टता, ताप और तीक्ष्णता है, वह हमारे समकालीन लोकतांत्रिक जीवन में वांछित भाषा के स्वरूप का सन्धान प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में अस्वीकार और असहमति को मर्यादित रूप में व्यक्त करने की शक्ति भाषा में रूप ग्रहण करती दिखाई देती है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस उपन्यास की भाषा आवरणों और आवेष्टनों को तोड़कर संवेग के सहज स्वरूप को व्यक्त करने का स्वरूप गढ़ती है। ’नीलाचाँद’ की भाषा लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को मजबूती का नया आयाम प्रदान करती है। बिना धिक्कार की वितृष्णा के प्रतिरोध के शालीन किन्तु दृढ़ भाषा के निर्माण की दिशा में इस उपन्यास के रचनाकार का अवदान स्मरणीय है।
’नीलाचाँद’ के एक और महत्वपूर्ण अवदान की चर्चा करके मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। इस उपन्यास में माँ शीलभद्रा के चरित्र की अवतारणा अद्भुत है। हमारे समय में धार्मिकता और धर्मान्धता, आस्था और उन्माद, शील और औधित्य, तप और तृष्णा आपस में दूध और पानी की तरह मिलकर इस कदर एकमेक हो गए हैं कि सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है। धर्म के नाम से हमारे समय का भारतीय बुद्धिजीवि इतना डरा हुआ है कि कहने लायक नहीं। उसे भय है कि धर्म के बारे में कुछ कहते ही उसकी बौद्धिकता विनष्ट हो जायेगी। वह न तो धर्म के पाखण्ड का प्रतिकार कर पा रहा है न उसकी शक्ति की अम्यर्थना ही। ऐसे समय में शिव प्रसाद सिंह ने माँ शीलभद्रा की प्रतिष्ठा के माध्यम से धर्म और राजनीति के अन्तर्सम्बन्ध की जिस उच्चता का निदर्शन प्रस्तुत किया है, वह अभ्यर्थनीय है। बौद्ध धर्म के पतन के प्रसार के प्रतीक वज्रयानियों के पाखण्ड की जैसी भर्त्सना जिस साहस से उन्होने की है, वह अभिनन्दनीय है। गन्दा धर्म और गन्दी राजनीति का गठजोड़ समाज को किस कदर पतन के गर्त में ले जाता है, इसका उदाहरण इस उपन्यास में कर्ण की राजसत्ता और वज्रयानियों की धर्म सत्ता के कुत्सित भोगवाद में बड़ा स्पष्ट व्यक्त होता है। इसी तरह लोक मंगलकारी धर्म और लोकमंगलकांक्षी राजनीति के संयोग से अभ्युन्नत समाज के विकास का मार्ग माँ शीलभद्रा और कीर्तिवर्मा की पारस्परिकता में प्रकाशित होता है। लोकहित में धर्म की प्रतिष्ठा ’नीलाचाँद’ में प्रतिष्ठित है। माँ शीलभद्रा के व्यक्तित्व में समाहित अतिमानवीय शक्तियों की अभिसन्धि, असहाय, पीड़ित जनों के प्रति उनकी अगाध करूणा और लोकहित में तत्पर राजशक्ति को उनका संरक्षण नीलाचाँद की चरित्र योजना की महत्तम उपलब्धि है। अध्यात्मशक्ति, राजशक्ति और जनशक्ति के संतुलन का उजास ’नीलाचाँद’ का अपना उजास है।
’नीलाचाँद’ को पढ़ते हुए कीरत के राजनीतिक मूल्यों को स्पृहणीय सम्मोहन के बीच हमें अपने महान लोकतंत्र के पाखण्ड की प्रवंचना की और यातना की बराबर याद आती रहती है। किसी रचना को पढ़ते हुए हमें अपने समकालीन जीवन के दंश की चुभन अगर तीव्रता में अनुभव होती है, तो यह भी यथार्थ जीवन बोध को जागृत करने की एक रचनात्मक प्रणाली है। इस प्रणाली का निदर्शन इस उपन्यास में साफ-साफ दिखाई देता है। शिव प्रसाद सिंह रचनात्मक रूढ़ियों के अनुवर्ती रचनाकार कदापि नहीं है। रचनात्मक जगत में अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना के नये आयामों का संधान उन्हे हमेशा अभिप्रेय रहा है। इस दिशा में ’नीलाचाँद’ उनके प्रयोगो की प्रशस्त प्रयोगशाला है।
मित्रो, मैं जानता हूँ, हमरे समय में किसी से भी, कोई भी सवाल पूछना बहुत बड़ा गुनाह है। क्या करूँ, बार-बार सजा पाने के बावजूद बान नहीं बदलती सो लाचारी है। गुस्ताखी माफ करने की अपील के साथ मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, क्या आपकी आँखो में धधकती किसी चिता की लपट बेचैन करती है। अन्याय, अत्याचार के आगे असहायता में खोये अपने किसी प्रिय व्यक्ति की, अपनी किसी प्रिय वस्तु की, अपने किसी विश्वास की, अपने किसी सँकज्प की, अपने किसी सपने की, अपनी किसी विरासत की कोई चिता, किसी चिता की विकराल स्मृति आपको उन्मथित करती है। यदि हाँ, तो ’नीलाचाँद’ निश्चय ही आपको एक कथा से अधिक मालूम पड़ेगा। कथा के कुतूहल से अधिक एक आश्वासन आपकी बेचैनी को अपने पार्श्व, परिपार्श्व में सहलता आपको खड़ा मिलेगा। संभवतः यही किसी साहित्यिक रचना की चरितार्थता है। साहित्य से हमें क्या चाहिए, बस यही, अपने भीतर के विश्वास के बल के लिये एक उत्प्रेरणा, जो यातना की, अवसाद की जटिल घेरेबन्दी में अफनाते आदमी से कह सके कि,- मैं तुझे लाँघ जाऊँगा।
सम्पर्क
डा. उमेश प्रसाद सिंह
प्राचार्य
माँ गायत्री स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय
हिंगुतरगढ़-चन्दौली-232105
मो0- 9450551160