Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
हमारे पुरखे कहते हैं, पहले वसन्त हर साल हमारे यहाँ आता रहा है। आता रहा होगा उनके समय में। इसमें मुझे कत्तई अविश्वास की कोई वजह नहीं दिखती। हमारे पुरखों का स्वभाव झूठ का स्वभाव नहीं है।
आने को तो पहले हैजा भी हर साल बस्ती-बस्ती आ जाता था। वह अपने नियत समय पर बरसात के साथ बराबर आता रहा है, न जाने कबसे। फिर वसन्त के आने में अविश्वास क्यों?
वे लोग भाग्यशाली होते हैं, जो वसन्त को आते हुये देख पाते हैं। इस मामले में मैं अपने को वैसा नहीं पाता। कभी-कभी देखा भी है, थोड़ी बहुत झलक, तो पतझर की आँखों में ही बैठकर। वैसे मैंने जब भी वसंत को देखा है, जाते ही देखा है।
पहले की बात जो भी हो जाने दीजिए। जब से हमारा देश स्वतंत्र हुआ है। जब से हमारे देश में लोकतंत्र के पाँव जमे हैं, तबसे यहाँ वसन्त पाँच साल में सिर्फ एक बार आता है। अब हमारे बीच में वसंत पाँच साल बाद आता है। चार साल दस महीने के लम्बे पतझर के बाद आने वाला हमारा वसन्त सचमुच कितना कीमती वसन्त है! कितना दुर्लभ वसन्त।
वैसे पंचांग के हिसाब से आज का दिन वसन्त का ही कोई दिन होना चाहिए। मगर नहीं, वसन्त का कोई भी लक्षण हमें दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखाई दे रहा है।
खेतों में हरियाली नाम की कोई चीज जाने कबसे नदारद है। अभी पिछले साल के आपदा का राहत चेक किसानों के हाथ से बहुत दूर है। अभी वह पता नहीं कहाँ है। किसानों के चेहरे पूरे साल भर से सूखे हैं। सूखे ही नहीं है उन पर उनके सपनों की चिताओं की राख की बड़ी मोटी परत जम चुकी है। इस साल जब वसन्त को आना चाहिये था, उससे पहले ही आँधी-पानी और ओला आ पड़ा। ओला आया और आकर अपने साथ, समूची हरियाली की फसल ले गया। सरसों के पीले फूलों का सागर बिला गया, देखते देखते। आमों के मंजरियों की सुगन्धि बदबू में बदल गई। भूखमरी का बवण्डर बिना सॉकल के दरवाजों को पीट रहा है धड़ाम-धड़ाम। कर्ज का भूत रात की नींद को अपने खूँखार पंजो में दबोचे है। अखबारों में किसानों के आत्महत्या की खबरें दिल दहला रही हैं। गाँवों से नौजवानों के पलायन की भीड़ से रेलवे की व्यवस्था डगमगा उठी है। ऐसे में वसन्त अगर कहीं होगा भी तो इतना बेशरम तो नहीं ही होगा कि पाँव उठाकर इधर ही बढ़ आये। मेरा ख्याल है कि अगर वह इधर आ भी रहा होगा तो जरूर उल्टे पाँव भाग पड़ा होगा। मगर यह तो मेरा अनुमान है। दरअसल इस वसन्त के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं।
मैं तो उस वसन्त के जाने की बात कह रहा था, जो अब पाँच साल बाद आता है। इस साल भी वह आया था। आते समय तो नहीं मगर जाते समय मैंने उसे देखा था। इस समय ठीक-ठाक याद नहीं आ रहा है, संभवतः वह अक्टूबर का आखिरी या नवम्बर का शुरुआती कोई दिन था। मैं कहीं से गाँव लौट रहा था। शाम का धुँधलका गहराने लगा था। फिर भी अँधेरा अभी घना नहीं हुआ था। वह बिल्कुल हमारे गाँवके गोंइड़े ही सड़क पर मिला था। जाते हुये, उदास, रुँआसा। उस दिन परधानी के चुनाव के परिणाम की घोषणा दोपहर में ही हो चुकी थी। दोपहर में चुनाव का परिणाम घोषित हुआ और शाम को वसन्त गाँव से विदा हो गया।
जब वह था, महीने-दो महीने गाँव की गली-गली गुलजार थी। दीवारों के भी कान निकल आये थे। हर गली-नुक्कड़ के कण्ठ सरस हो उठे थे। चप्पे-चप्पे में जबान फूट पड़ी थी। छोटे-छोटे बच्चे नारा लगाते घूमते फिर रहे थे- ‘ आधी रोटी खायेंगे, बाहुबली को जितायेंगे। वयस्क लाण्ड्री में धुले-धुलाये कपड़े में लकदक आवाजाही में उत्फुल्ल। गरीबी और अभाव के दुखड़े न जाने कहाँ दुम दबाकर गुम हो गये थे। बूढ़ों की झुकी कमर न जाने किस अज्ञात ऊर्जा के आवेग से बिल्कुल तन कर सीधी।
हर मिलने वाला आदमी दिन में दस-दस बार नमस्कार, प्रणाम, चरणस्पर्श कर-करके कुशल-क्षेम के अथक चरचे में मशगूल। सबको अपना बना लेने की, अपना लेने की गजब होड़। एक बीमार हो जाय तो दस-दस दावेदारों की सेवा-सहायता की आश्चर्यजनक स्पर्धा देश में व्याप्त कथित असहिष्णुता के चरचे को झुठलाती सहिष्णुता की अनोखी मिशाल पंचायत चुनाव की शोभा में चारचाँद लगा रही थी। चारचाँद के मुहावरे को झुठलाकर चौदह चाँद का मुहावरा गढ़ रही थी। खेत-सीवान भले पानी की कमी से सूख रहे थे मगर बस्तियों में आत्मीयता की बाढ़ समूची आबादी को गले तक डुबा रही थी। सचमुच का वसन्त व्याप्त था सब जगह। सौहार्द का पर्व, स्नेह का, सम्मान का पर्व, उमंग और उछाह का पर्व गलियों में पौंड रहा था। जो तैरना जानते थे वे गहरे जल में गोता लगा रहे थे, साँस बाँधकर। डूब-डूब कर पानी पी रहे थे। पेट फूल जाने पर पानी के कुल्ले फेंक-फेंककर नहा रहे थे।
जो तालाबों के सूख जाने के बाद उनको पाट दिये जाने के उपरान्त पैदा हुये थे, जो इस कौशल से वंचित थे वे कमर भर पानी में छिपकोरियाँ खेल रहे थे। यह जल आसमानी बादलों से नहीं बरस रहा था। यह जल हमारे गणतंत्र की जमीन से उपजे अधिकार की अभीप्सा के उमड़ते-घुमड़े बादलों से बरस रहा अविरल सुख का जल था।
यह हमारे गणतंत्र का वसन्त था। यह चमटोल के रास्ते गाँव में पधारा था। सबसे पहले चमटोल में आया फिर पिछड़ी जाति की बस्तियों में फिर पूरे गाँव में छा गया। यह वसन्त पोंगापंथी वसन्त नहीं था। यह पूरा-पूरा ‘मॉड’ था बल्कि ‘अल्ट्रामाड’ था। इसका रंग दिन में उतना नहीं जमता था, जितना रात में।
शाम होते ही इस वसन्त के दूत घर-घर का द्वार खट-खटाकर मुर्गा, मछली, मांस जिसको जो पसन्द हो, पहँुचा देते हैं। देशी दारू के पाउच, बोतले और अंग्रेजी शराब के पैक लोगों के हाथ उनकी हैसियत के मुताबिक थमा देते। हमारे गणत़न के वसन्त का यह महाभोज पूरे ऋतु पर्यन्त चला। पूरे-पूरे दो महीने। हमारे समय का वसन्त पूरा-पूरा मांसभोजी वसन्त है। पूरा-पूरा रक्तपायी वसन्त। हमारे जमाने में जो मांसाहारी नहीं है। जो मदिरापायी नहीं है। मद्यप नहीं है। उसके दरवाजे वसन्त झाँकने भी नहीं गया।
इस वसन्त में सरस्वती पूजा किसी दिन नहीं हुई। लक्ष्मी की भी पूजा नहीं हुई। लक्ष्मी का भोग खूब हुआ। उपभोग खूब हुआ। उपयोग खूब हुआ। सारे मत खरीदे गये। खरीद लिये गये। सारे मत बिके। बिक गये। बेंच दिये गये। जो रुपये-पैसे पर नहीं बिके, वे भी बिके। जाति की, खानदान की, खान-पान की आन-बान पर बिके। अपने अन्तिम चरण में हमारा वसन्त, बिक्री वसन्त बनकर धन्य हो गया।
चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद आज शाम वसन्त मुझे गाँव से जाते मिला। आज दोपहर वसन्त समूचे गाँव को छोड़कर विजयी प्रत्याशी के द्वार की शोभा बढ़ाने में सिमटा रहा। फिर वहाँ से भी निकल लिया। मैंने वसन्त को जाते देखा।
अपने देश में गणतंत्र की स्थापना के बाद हम अपनी सुविधा के लिये संविधान में कई जरूरी संशोधन कर चुके है। हमें एक और संशोधन की बेहद जरूरत है। ‘मतदान’ का संशोधन करके ‘मतबिक्री’ का स्वीकार समय के सच की अस्मिता का सवाल है।
विदा होते-होते वसन्त बोल रहा है। बोलता जा रहा है, हमारे समय में सारी गर्व की चीजें ग्लानि की और दान की चीजें बिक्री की चीजें बन गई है। मैं भी केवल वसन्त नहीं बिक्री वसन्त हूँ।