Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार Dr. Umesh Prasad Singh
पानी नीचे चला गया है। नीचे, बहुत नीचे चला गया है। इतना नीचे कि हमारी पकड़ में नहीं है। वह हमारी पहुँच में नहीं है। वह सिकुड़कर, सिमटकर नीचे ही भागता जा रहा है।
सतह पर पानी कहीं नहीं है। जो कुछ है बिना पानी का है जो कुछ है बेपानी है। पानी न चेहरे पर है। न आँख में है। न जबान पर है। सब कुछ रूखा-रूखा। सब कुछ सूखा-सूखा। हमारी जमीन की सतह से, हमारे चेहरे से, हमारी आँख से, हमारी वाणी से पानी क्यों भागता जा रहा है। सबको छोड़कर पानी क्यों पाताल पैठता जा रहा है?
सवाल है, मगर किसके लिए? किससे पूछना है, पानी से? पानी पीने वालों से? पानी बहाने वालों से? पानी की पत उतारने वालों से? पानी से केलि क्रीड़ा करने वालों से? पानी बेचने वालों से? पानी से प्यार करने वालों से? किससे पूछे? नहीं, नहीं, यह तो तय कर पाना बड़ा मुश्किल है। हमारे समय में कुछ भी तय कर पाना बड़ा मुश्किल है। बेहद कठिन है। एक प्रश्न को जरा-सा छू दीजिए। फिर प्रश्न से इतने फूट पड़ते हैं कि मूल प्रश्न ही पता नहीं धकियाती भीड़ में कहाँ खो जाता है। प्रश्नों का ऐसा बेकाबू रेला उमड़ पड़ता है कि प्रश्न के साथ-साथ पूछने वाले के वजूद का भी कहीं अता-पता नहीं रह जाता। अरे बाप रे! कितना खतरनाक है। कितना खतरनाक है,- एक सवाल के लिए जान जोखिम में डालना। एक सवाल और है। सवाल यह भी है कि क्या जोखिम में जान को न डालकर भी हमारे समय में जान को जोखिम से बचाए रखना संभव है। शायद….। शायद नहीं। फिर क्या फर्क पड़ता है। देखिए न आँख उठाकर अपने समय में चारों तरफ जिनके भी कंधे पर सिर बने हुए है या कि बचे हुए हैं, सबके सब ओखली में पड़े हुए हैं। अब मूसलों की गिनती कौन करे। जिनके सिर ओखली में नहीं हैं, उनके सिर पर मूसल नहीं गिरेंगे, यह विश्वास बनाए रखना भी आसान नहीं है। हमारी व्यवस्था में आदमी की भूमिका आदमी जैसी बची ही कितनी है। हमारे समय का हर निरपराधआदमी मनुष्यता विरोधी अघोषित महायुद्ध का आखेट बन कर रह गया है। यह ऐसा युद्ध है, जिसमें जो लड़ेंगे वे तो मारे जाएंगे ही! मगर जो नहीं भी लड़ेंगे वे नहीं मारे जाएंगे, इसकी तनिक भी गुनायश कहीं नहीं दिखती। खैर!
जाने दीजिए। फिर कभी। अभी दूसरी बात करनी है। अभी तो पानी के बारे में….।
हमारी विरासत में जल केवल जल नहीं है। कभी नहीं रहा है। हमारे लिए जल जीवन का संपोषक है। जीवन को जुड़ाने वाली, जुगाने वाली हर चीज जल का समानार्थी है। जल जीवन को सजल बनाता है। जीवन को सबल बनाता है। जीवन को सफल बनाता है। जीवन को सार्थक बनाता है। जल से ही जीवन धारण करने योग्य बनता है। जल जीवन का आधार है। जब जीवन का आधार ही नीचे चला जाएगा। अपनी पहुँच से बाहर हो जाएगा तो भला जीवन को संभालना कितना मुश्किल हो जाएगा। हमारे लिए जल का संकट जीवन का संकट है।
जो लोग पानी के संकट के सामने भी पानी-पानी हो जाना नहीं जानते उनकी बात कौन करे। जो पानी को पानी के भाव बहा देने में तनिक भी संकोच नहीं करते, उनका कलेजा तो पत्थर का ही होता होगा। पानी के चुक जाने पर भी जिनके मन में ग्लानि नहीं जागती वे मनुष्यजाति के लिए कलंक कहे जाने योग्य ही हो सकते हैं। ऐसे मानुष का भला मनुष्यता से क्या नाता हो सकता है। समय चाहे जितना भी बेपानी हो जाय, मनुष्य जीवन में क्षुद्रता की चाहे जितनी भी व्याप्ति हो जाय मगर फिर भी पानी की चिंता तो पानीदार बनी ही रहेगी।
हमारी विरासत में पानी के संचय के लिए बड़ी पवित्र प्रवृत्ति का जीवन में प्रभूत प्रसार उपलब्ध मिलता है। हमारी जीवन व्यवस्था में सरोवरों, तालाबों, बावड़ियों, तड़ागों और कूपों का निर्माण धर्मकार्य के उत्तम उदाहरण के रूप में अभिनन्दित होता रहा है। नदियों की पूजा की परम्परा का उत्स तो मानवीय सम्भ्यता के उद्गम के साथ-साथ ही जुड़ा है। जल का उपयोग झुककर विनीत भाव से कृतज्ञतापूर्ण आह्लाद के साथ करने की रीति हमारी जीवन परम्परा में आदरपूर्ण प्रतिष्ठा की अधिकारिणी रही है। कुँए से हम हमेशा झुककर जल निकालने के अभ्यासी रहे हैं। नदी में, सरोवर मे झुककर जल का आचमन करने का हमारा अभ्यास स्वभाव की तरह सहज हमारे जीवन व्यवहार में समाहित रहा है। जीवन का आधारभूत हर पदार्थ हमारे लिए पूजा का आश्रय रहा है। पानी हमारे लिए केवल पदार्थ कभी नहीं रहा है। वह तो वरुण के रूप में देवता की पदवी प्राप्त रहा है, हमारे सामूहिक सामाजिक जीवन में। जीवन को धारण करने के लिए सहायक और उपयोगी हर चीज हमारे लिए जीवन के बराबर ही महत्तम है। जीवन के समान ही पूज्य है। ऐसा विश्वास हमारे संस्कार में निहित रहा है।
मगर अब….? मगर आज….? नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। जो हमारी अन्तःप्रज्ञा का आलोक था, उसे हमने आज अबौद्धिक अन्धता कहकर त्याग दिया है। सबका हमने परित्याग कर दिया है। आधुनिक कहे जाने की आकुलता में, अतुरता में, ललक में हमने सारे पदार्थों के साथ सारे सम्बन्धों का परित्याग कर दिया है। हमारा सम्बन्धों का परित्याग पदार्थों तक ही सीमित नहीं रहा। आज हमारी सभ्यता मनुष्य और मुनष्य के बीच भी सम्बन्ध हीनता के भयावह सन्नाटे के सम्मुख सिर लटकाये खड़ी है। हम पानी के उपयोग के लिए पानी के प्रति आभार प्रदर्शन के बिल्कुल विमुख हैं। हम पानी के लिए धरती की छाती छेदकर भी लज्जित नहीं है। आज हम जीवन के लिए सारी उपयोगी चीजों का उपभोग करने के अभिमान में डूबे हुए हैं। स्वामित्व की उद्दाम लालसा के अथाह विस्तार में डूब मरने को दौड़ रहे हैं। आज हमारे पास जो कुछ भी है सबको पददलित करके रौंद रहे हैं। रौंद कर अपने अधिकार सुख के बेकाबू नशे में निढाल हो रहे हैं।
यह सब क्या है? स्वामित्व का अभिमान। श्रेष्ठता का दम्भ। शक्तिवान होने का दर्प। अपने को बड़ा साबित करने के सारे हथकण्डे आदमी को अन्ततः आदमी न बने रहने के गर्त में गिरा रहा है। आदमी निरन्तर असहाय, शक्तिहीन, अकेला और अवश बनता जा रहा है। प्रकृति की असीम शक्ति के सम्मुख आदमी की बिसात ही क्या है।
प्रकृति आदमी के अतिचार से अत्याचार से अमानवीयता से विक्षुब्ध है। पानी सतह को छोड़कर बहुत नीचे जा रहा है। पानी के साथ बहुत कुछ जो जीवन के लिए बहुत जरूरीर है, बहुत नीचे जा रहा है। बहुत कुछ सतह को छोड़कर बहुत गहरे घने आवरण में छिप रहा है। हमारे समय की बड़ी ही बेधक विडम्बना है कि हमारे जीवन के सारे साधन सतह से विलुप्त हैं। वे गहन आवरण की अभेद्य गहराई में जा छिपे हैं। कुछ भी पाने के लिए आदमी का बहुत नीचे गिरना उसकी मजबूरी बन गई है। छोटी-छोटी चीजों को भी पाने के लिए नीचे गिरने की नियति आदमी को कितना बौना बना रही है। कितना तुच्छ और अपदार्थ बना रही है। केवल जीने भर की सुविधा जुटाने के लिए हमारे समय में मनुष्य के निरन्तर नीचे गिरते जाने की नियति कितनी दारुण है। हमने प्रेम में, प्रार्थना में झुकने से विद्रोह करके स्वार्थपूति में नीचे गिरने की लाचार दयनीयता का वरण किया है। हमारी सम्पन्नता में कैसी विपन्नता अन्तर्निहित है, इसका सही आकलन अभी संभव नहीं है। इसके लिए अभी इंतजार अपेक्षित है।
पानी का नीचे चले जाना आदमी के सामूहिक जीवन स्तर के नीचे गिरने का सूचक है। यह हमारी सभ्यता के लिए जिसे हम अंगीकार करके जी रहे हैं, संकट का संकेत है। यह समय की चेतावनी है। काल हमें चेता रहा है। वह कह रहा है,- पानी को नीचे मत गिरने दो। उसे पकड़ो। उसे अपनी पहुँच में रखो। उसे जुगाओ। जुगाकर अपनी आँख में भर लो। आदमी की जिन्दगी की शोभा आँख में पानी से ही होती है। आदमी के चारों ओर जो विद्वेष की, वैमनस्य की, विभेद की, विषाद की आग लहक रही है, उसे समेट कर अपने सीने में रख लो। आदमी के लिए आँख में पानी और सीने में आग का होना बहुत जरूरी होता है। इनके होने से ही मनुष्य जीवन में सौभाग्य फलित होता है।
Dr. Umesh Prasad Singh
Lalit Nibandhkar (ललित निबंधकार)
Village and Post – Khakhara,
District – Chandauli, Pin code-232118
Mobile No. 9305850728