Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार Dr. Umesh Prasad Singh
मैं कबीर नहीं हूँ। मगर मैं कुछ खोज रहा हँू। मैं जो खोज रहा हँू , वह कोई बड़ी चीज नही है। मैं बहुत ही मामूली चीज को अपने आस-पास के जन जीवन में अपनी समाज व्यवस्था में ढूंढ रहा हँू। जाने कबसे हलकान हँू। खोजकर थक रहा हूँ। हार रहा हूँ। कहीं मिल नहीं पा रही है। मैं अपने देश के जनतंत्र में जन को खोज रहा हूँ। जन कहाँ है? जन के लिए क्या है?
हमारे जनतंत्र में जन सिर्फ एक दिन दिखाई पड़ता है। उस दिन वह हर कहीं दिखाई पड़ता है। शहर में, बाजार में, गाँव में हर जगह वह दिखाई देता है। खुले हुए आकाश के नीचे तपती हुई धूप में, पसीने-पसीने वह लम्बी-लम्बी लाइन में लस्त-पस्त लगा हुआ हर किसी को दिखाई देता है। मतदान के दिन मतदान के लिये वह हर कहीं आसानी से देखा जाता है। हलॉकि मतदान केवल लोकतंत्र की किताबों में मात्र एक शब्द है, जिसका व्यवहार में कोई अर्थ नही होता। मत जैसी कोई चीज अगर है भी तो दान से उसका कत्तई कोई लेना-देना नहीं है। हमारे समय में वह केवल हथियाने की, हड़पने की और लूटने की चीज बनकर रह गया है। धनबल से, बाहुबल से, बुुद्धिबल से जो बीस पड़ता है, बटोर लेता है। फिर उस एक दिन के बाद जन हमारे जनतंत्र में पता नही कहाँ खो जाता है। ऐसा खो जाता है कि खोजे कही नहीं मिलता। हेरे से हाथ नहीं लगता।
जिसे हर कही होना चाहिए वह कही नही है। न देश में न प्रदेश में। न शहर में न, गाँव में। न बाजार में न खेत में। कहाँ गया जन? कुछ पता नहीं। जनतन्त्र में जन का कही पता नही है। हमारे जनतन्त्र में जन बूॅद हैै। सरकार सागर है। बूँद समुद्र में समा गई समाहित हो गई। बूँद समानी समद मो। सरकार के अस्तित्व में आते ही सारी जनता सरकार में विलीन होे गई। अब जन नहीं है। जनता नहीं बस सरकार है। हाँ सरकार है, देश में है, प्रदेश में है, गाँव में गाँव की सरकार है। जन कहीं नहीं है। जनता कहीं नहीं है।
जनता में महामारी है। महामारी जनता को मार रही है। जनता मर रही है। जनता काहे लिये है, मरने के लिये है। जनता में बीमारी है। दवा नही है। अस्पताल नहीं है। इलाज नहीं है।
जो अस्पताल हैं, वे अस्पताल नहीं हैं। अस्पताल की शक्ल में कानून के संरक्षण में धन उगाही के बेशर्म अड्डे हैं। जनता में भूख है। भय है। अशिक्षा है, असुरक्षा है। स्कूल कहीं नहीं हैं। सुरक्षा का आश्वासन कहीं नहीं है। क्यों नहीं है? इसी लिए कि जनता में भूख को भय को अशिक्षा को असुरक्षा को बने रहने देना है। इसके साथ रहनेे से ही जनता- जनता जैसी रह सकती है।
जनता तो सरकार के लिये है। मगर सरकार किसके लिये है? नहीं यह प्रश्न ठीक नही है। यह प्रश्न कानून के खिलाफ है। यह प्रश्न लोकतंत्र की मर्यादा के विरूद्ध है। इससे जुड़े और भी बहुत प्रश्न है, जिन्हे पूछने की मनाही है। प्रश्न यह भी है कि क्या सरकार और देश एक ही चीज है? मगर नहीं। नहीं पूछना है। कुछ भी पूछना किसी से भी पूछना मना है।
हमारे समय में किताबें भयानक रूप में झूठ बोलने लगी हैं। हम क्या करें? आखिर किसका विश्वास करें? किताब कहती है कि सरकार जनता के लिये है। सरकार देश के लिये है। मगर ऐसा दिखता नहीं है। दिखता यह है, कि सरकार सिर्फ सरकार के लिये है। सरकार को बनाये रखने के लिये समूचा देश सरकार के लिये है। हमारी किताबो में जो कुछ लिखा है। वह हमारे जीवन में दिखता क्यों नही है? जनतन्त्र के कानून की किताब में जनता के प्राथमिक अधिकारो के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता घोषित की गई है। अपने प्राथमिक कर्त्तव्य से सरकार अपना पीछा क्यों छुड़ा रही है, कौन पूूछे।
हमारे देश में सरकार है, अपनी पूरी ठकस के साथ है। मगर जनता के लिये नहीं है। जनता अपने बच्चो कोे पढाने में पसीने-पसीने है। निजी स्कूलो को फीस देते-देते बेहाल हो रही है। एक ही कोर्स को पूरा करने के लिये तीन-तीन तरह से फीस भर रही है। स्कूल में अलग ट्रयूशन में अलग, कोचिंग में अलग। सब कुछ करके केवल कागज की डिग्रियाँ पा रही है। जो आँस पोछने के काम भी नही आ रही है। मामूली सी बीमारी के लिये निजी अस्पतालों में लाखांे का बिल चुका रही है। हाँफ रही है। नाक से ऊपर चढते पानी में अफना रही है। सुरक्षा की तो बात ही छोड़िये। फिर भी सरकार है। पता नहीं किसके लिए है। इधर महामारी ने पूरे तंत्र को नंगा करके रख दिया है।
पूरा देश बिलबिला रहा है। मर रहा है। पिट रहा है। मिट रहा है।
आदमी एक बार नहीं बार-बार मर रहा है। वह मरने से पहले भी मर रहा है। मरने के समय भी मर रहा है। मरने के बाद फिर मर रहा है।
न जाने कैसे त्रासदी है। न जाने कैसे संकट है, अभूतपूर्व। नहीं,
इससे पहले ऐसा नहीं हुआ था। कुछ समझ नही आ रहा है। कोई कुछ समझ नही पा रहा है। क्या करे। आलम्ब के अवलम्ब के सहारे के सारे आश्रय छिन गए हैं। आदमी जहाँ भी है अकेला है। असहाय है। लाचार है। सरकार कहीं नहीं है।
सरकार जहाँ भी है, आदमी से बहुत दूर है। आदमीयो के बीच में केवल लाचारी है। दहशत है। आतंक है। असहायता है।
कोरोना इस महादेश के गाँवों में पॉव पसार रहा है। यहाँ बीमारी से संर्घष की कोई बात नहीं है। केवल आत्मसमर्पण है। बीमारी का आक्रमण हो और लोग मर जाय।
हमारे गाँव में कही भी सरकार का कोई नाम निशान तक नही है। अखबारों में, टेलीविजन के समाचारों में सरकार के वक्तव्य है। लडने की उद्घोषणए है। मैदान में कोई नहीं है।
मै एक गाँव में रहता हूँ कितने दिन से रोज सुन रहा हूँ सरकार आ रही है। बचाव के सारे इंतजाम के साथ आ रही है। मगर पता नहीं कहाँ है। यहाँ तो कहीं नहीं है।
हमारे जनतंत्र में समूचा जन सरकार में समहित है। मैं सरकार में खोज रहा हूँ- जन कही नहीं है। मैं आपदा काल में जनता के बीच सरकार को खोज रहा हूँ कही नही है। मै खोेजते-खोजते थक रहा हूँ। पक रहा हूँ।
मुझे लगता है मैं खुद ही खो गया हूँ मैं न सरकार में हॅँू न जनता में हूँ।
हेरत-हेरत हे सखी गया कबीर हेराय। मै भी हेराय गया हूँ खो गया हूँ मगर कबीर की तरह नहीं बिल्कुल अपनी तरह। बूँद, बूँद में ही सूख गई है। हर जगह महामारी है। आदमी कही नहीं।