Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार डा. उमेश प्रसाद सिंह की कलम से
मनुष्य के लिये सराहने के योग्य सिर्फ प्रीति है। संसार में अगर सराहना के योग्य कुछ है तो वह प्रेम है। संसार में प्रेम है, इसलिये संसार भी सराहना के योग्य है। रहीम कहते हैं कि प्रीति को सराहिये। और कुछ करिये, न करिये आपकी मर्जी। मगर इतना जरूर करिये कि प्रेम की सराहना करिये। प्रेम की सराहना करने से मनुष्य, मनुष्य हो जाता है। प्रेम की सराहना करने से प्रेम हो जाता है। प्रेम हो जाता है तो पनपने लगता है। सुगन्धि फैलने लगती है। रंग खिलने लगता है। जिन्दगी चहकने लगती है। धन्यता भरने लगती है। जीवन धन्य हो जाता है। प्रेम के होने से मनुष्य भगवान और भगवान मनुष्य हो जाता है। सबसे बड़ा भेद मिट जाता है। अभेद गा उठता है। अभेद का गान गूँज उठता है।
हमारा समूचा भक्ति काव्य प्रेम की भक्ति का काब्य है। प्रेम भक्ति का युग है। हमें पढ़ाया जाता है कि कबीर निर्गुण भक्त कवि हैं। तुलसी राम भक्त हैं। सूर और मीरा कृष्ण भक्त हैं। मैं कैसे कहूँ कि हमें झूठ पढ़ाया जाता है। मगर यह सच है कि हमें भक्ति की विभक्ति पढ़ाई जाती है। हमारा सारा जोर विभाजन पर होता है, भिन्नता पर होता है। एकता पर – एकरुपता पर – एक सूत्रता पर हमारा ध्यान बहुत कम होता है। प्रायः नहीं ही होता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम अपनी रूचि, अपनी मतभिन्नता को लेकर कविता को परखने का प्रयत्न करते हैं और उसी को खोजकर प्रतिष्ठित करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमारा अनुशीलन ही खिण्डन का संवाहक बन जाता है? अगर ऐसा है, तो चिन्ताजनक है। साहित्य तो मनुष्य के आन्तरिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का प्रवर्तक है। खैर।
कबीर, तुलसी, सूर, मीरा, रहीम, रैदास सबके सब प्रेम के भक्त हैं। प्रेमी हैं। परमप्रेमी हैं। प्रेम के पुजारी हैं। उनके लिये बस नेह का नाता ही नाता है। और कोई सम्बन्ध उनके विधान में है ही नहीं। प्रेम की महिमा की अर्चना जैसी यहाँ हैं, दुर्लभ है। समूची भक्तिकालीन कविता के गौरव का आधार प्रेम है। रहीम कहते हैं कि प्रेम अद्भुत है। प्रेम अपूर्व है। प्रेम पूर्ण है। प्रेम सम्पूर्ण हैं। प्रेम में संसार की सारी अपूर्ण अस्मिता, सारा खण्डित अस्तित्व समाहित होकर पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। प्रेम मानवीय अस्मिताओं के विलयन का अद्भुत रसायन है। भिन्न-भिन्न मानवीय अस्मिताओं के विलयन का अद्भुत रसायन है। भिन्न-भिन्न सत्ताओं को समाहित करके एक अभिन्न सत्ता की रचना इस सृष्टि में केवल और केवल प्रेम के बूते की बात है। प्रेम के अलावा और किसी में यह सामर्थ्य नहीं है।
समूचे संसार को,-सम्पूर्ण जगत को अभिन्न स्वरूप में जान लेने का माध्यम बस प्रेम ही है। सारे संसार में मनुष्य और मनुष्य के बीच समत्व और अपनत्व का बोध प्रेम के द्वारा ही संभव है। प्रेम ही वह चीज है जो मनुष्य जाति को भिन्न सत्ता के स्वरूप से बदलकर अभिन्न सत्ता के स्वरूप में अधिष्ठित कर देती है। सुख और दुःख के अनुभव की यह एकात्मकता मनुष्य जाति की सर्वोच्च उपलब्धि है, जिसे प्रेम ने मानव जीवन को हमेशा से हमेशा के लिये प्रदान कर रखा है। रहीम की कविता प्रेम की अभ्यर्थना की कविता है। रहीम की कविता के प्रेम में वैयक्तिक अस्मिता का रंग सदा के लिये मिट जाता है और पारस्परिक अस्मिता का नया रंग रच जाता है। अलग-अलग रंग मिलकर जिस रंग में बदलते हैं, उसकी आभा, उसकी दीप्ति दूनी हो जाती है। अलगाव जब लगाव को पा जाता है, दूना चटक हो उठता है। अलगाव में हल्दी का पीलापन है, कमजोर, बीमार। अलगाव में चूने की क्षरित करने वाली सफेदी है, उदास। जब दोनों मिल जाते हैं- हल्दी और चूना आपस में मिल जाते हैं, तो दोनों अपना रंग छोड़ देते हैं। दोनों से अपना रंग छूट जाता है। हल्दी का पीलापन गायब हो जाता है। चूने की सफेदी गुम हो जाती है। अलगाव मिट जाता है, और नया रंग प्रगट हो जाता है। एक नये रंग की नयी अस्मिता उद्भासित हो उठती है। रहीम की कविता इसी अस्मिता के यशगान की कविता है। उनकी कविता हर किसी से प्रीति की सराहना के लिये आकुल अनुरोध की कविता है।
रहीम मेल के कवि हैं। उनकी कविता मिलाप की कविता है। रहीम की कविता विलाप की कविता नहीं है। विलाप में दुःख का विकल्प नहीं है। कविता दुःख के विकल्प की तलाश है। कविता जीवन संघर्ष में बल को बढ़ाने के लिये साधन है। कविता मनुष्य को उसकी अपरिचित शक्ति से परिचित कराने के लिये माध्यम है। कविता मनुष्य की सामर्थ्य को उद्घाटित करने के लिये उपादान है। रहीम के लिये कविता वाणी के व्यवहार की वस्तु नहीं है। उनके लिये कविता मानवीय अस्मिता की गरिमा के संरक्षण की अचूक विरासत है।
इस विरासत को रहीम ने बहुत संभालकर रखा हैै। सिर्फ संभालकर रखा ही नहीं, उसका मान भी खूब बढ़ाया है। उसके गौरव को काफी ऊँचा उठाया है। रहीम की कविता, कविता की भारतीय परम्परा का मान बढ़ाने वाली कविता है। उनकी कविता में जीवन की बाहरी अनुभूतियों की वह मार्मिक सच्चाई है, जो स्मृति में अनायास ही अपनी जगह स्थित कर लेती है। स्मृति में ठहर पाने की जद्दोहद में लथपथ कविताओं की भीड़ में रहीम के दोहे भीड़ से अलग खड़े मुस्कराते मिलते हैं। दोहे जैसे लगभग सबसे छोटे छन्द भीड़ से अलग खड़े मुस्कराते मिलते हैं। दोहे जैसे लगभग सबसे छोटे छन्द में रहीम ने जीवन के विराट बोध को रचने की जो सामर्थ्य प्रगट की है, वह अविस्मरणीय है। रहीम के दोहों की अविस्मरणीयता एक और तरह से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, वह यह कि रहीम के दोहे धार्मिक नहीं हैं। प्रायः धार्मिक कलेवर के काव्य की लोकप्रियता के आधार में धर्म ही प्रधान होता है, काव्य नहीं। रहीम की कविता का कलेवर धर्म नहीं है। आन्तरिकता में धर्म है। इस दृष्टि से रहीम समूचे भक्ति काव्य की विशालधारा में अलग हैं। अलग तरह के कवि हैं। रहीम सन्त नहीं हैं। रहीम का कोई पंथ नहीं है। वे पंथ विहीन कविता के पंथी हैं। रहीम उस रास्ते के कवि हैं, जिस रास्ते से कवि होना सबसे कठिन होता है। रहीम सत्ता के केन्द्र में भी हैं। रहीम वैभव के केन्द्र में भी हैं। अधिकार की महत्ता के आसन पर भी विराजमान हैं। युद्ध के संचालक भी हैं। सेनाध्यक्ष भी हैं। महान दानी भी हैं। रहीम दानी हैं। याचक नहीं हैं। इन सब जगहों पर होने के बावजूद, इन सारी स्थितियों में होने के बावजूद रहीम कवि हैं। मुकम्मल कवि हैं। और सब जो वे हैं, उन सबमें सबसे अधिक वे कवि हैं। वे कवि शासक हैं। वे कवि मन्त्री हैं। वे कवि दानी हैं। वे कवि योद्वा हैं। वे कवि मित्र हैं। वे पहले कवि हैं, सबसे पहले वे कवि हैंे और बाद में भी वे कवि ही हैं। बीच में और भी बहुत कुछ हैं, जो उनके कवि में समाहित है।
सत्ता के चरित्र में दानी और याचक दोनों होता है। दोनों बराबर-बराबर होता है। इसीलिये सत्ता का चरित्र जटिल होता है, सरल नहीं। कवि के चरित्र में केवल दानी होता है, याचक नहीं। रहीम के चरित्र में दानी है, याचक नहीं। इसीलिये सत्ता में होकर भी रहीम का चरित्र भिन्न है। उनका चरित्र सत्ता का चरित्र नहीं कवि का चरित्र है। सरल है, जटिल नहीं। सहज है, कृत्रिम नहीं। आकर्षक है, उत्तेजक नहीं।
रहीम के दोहे जीवन से इतने संश्लिष्ट है कि उनमें जीवन जी उठा है। बड़ा अद्भुत है। बड़ा विस्मयजनक है। इतनी छोटी-सी जगह में, इतने स्वल्प स्वरूप में जीवन की विराटता मुस्करा रही है कि देखकर आदमी अवाक रह जाता है। मुग्ध हो जाता है। विस्मय विमुग्ध हो उठता है। होना पड़ता है। रहीम अभिव्यक्ति की सत्ता के सम्राट हैं उनका एक-एक दोहा अपने विषय के एक पूरे प्रबन्ध के सामने गर्व से सिर तान कर खड़ा रहने की सामर्थ्य का स्वामी है। अद्भुत है। रहीम की काव्यभाषा व्यवहार की भाषा नहीं है। उनकी भाषा बोध की भाषा है। बोध को बोध में ले जाने की भाषा है। बोध को बोध में बो देने की भाषा है। बोध को बोध में उगा देने की भाषा है। बोध को बोध में फलित कर देने की भाषा है। काव्य भाषा की यही मर्यादा है। रहीम काव्यभाषा को मर्यादा देने वाले कवि है।
न जाने रहीम ने कहना कहां से सीखा था? किससे सीखा था? बार-बार पूछने का मन होता है। वेैसे ही मन होता है जैसे कविवर पन्त का मन हुआ था चिड़िया से पूछने का-‘‘कहाँ, कहाँ हे बाल विहंगिनि पाया तूने स्वर्मिक गाना।’’ मगर मैं पूछ नहीं पाता। इसलिए नहीं पूछ पाता कि मैं जानता हूँ कि रहीम ने सीखा नहीं था। सीख कर वैसे कहा ही नहीं जा सकता, जैसे रहीम कहते है। कुछ सीखकर बिहारी जैसा कहा जा सकता है, रहमी जैसा नहीं। सीखा व्यवहार जाता है, जीवन नहीं। बिहारी व्यवहार के कवि है, जीवन व्यवहार के। उनकी भाषा व्यवहार की भाषा है। रहीम जीवन के कवि हैं। उनकी भाषा जीवन की भाषा है।
रहीम कविता के लिये प्रार्थी कवि नहीं हैं। कविता प्रार्थी है उनमें लिख जाने के लिये। कविता प्रार्थी है, उनसे लिख जाने के लिये। जो कविता के पीछे-पीछे दौड़ते हैं, कविता को पकड़ लेने के लिये, वे कवि नहीं होते हैं, कविता के लोलुप होते हैं। वे कविता के सौन्दर्य के, कविता की समृद्धि के, कविता के वैभव के, कविता की शक्ति के लोलुप होते हैं। जो कविता के पीछे-पीछे दौड़ते हैं, वे कविता को कभी पा नहीं पाते। कविता को जो प्रिय होता है, कविता का जो प्रिय होता है, अनायास ही पा लेता है। कविता जिसमें रच बस जाती है, हमेशा रहती है। सोते-जागते, उठते-बैठते रहती है। खाते-पीते रहती है। जो सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते, बोलते-बतियाते, लड़ते-भिड़ते, हारते-जीतते हमेशा होती है, वही कविता होती है। नहीं तो व्यवहार की कविता होती है। प्रेम की कविता में और प्रेम-व्यवहार की कविता में बड़ा फर्क होता है।
‘‘कहत, नटक, रीझत-खिझत, मिलत, खिलत लजियात। भरे मौन में करत हैं नैनन ही सों बात।’’ बिहारी का प्रसिद्ध दोहा है। दोहा आँख के बारे में है। आँखों से सम्पन्न होने वाले प्रेम व्यवहार के बारे में है। दोहा आँख के बारे में है, मगर दोहे में आँख नहीं है। आँख अनुपस्थित है। आँख से सारी क्रियायें निष्पन्न हो रही हैं मगर आँख नदारद है। इसमें आँख नगण्य है। प्रेम व्यवहार का वर्णन है, मगर प्रेम नहीं है। प्रेम की लीला है। अभिनय है। मगर प्रेम नहीं है। अभिनय में प्रेम हो भी कैसे सकता है। आँखें बात तो कर रही हैं। बड़ी विदग्धतापूर्वक कर रही हैं। मगर आँखों में आँखें नहीं हो पा रही हैं।
आँख के बारे में ही रहीम का भी एक दोहा है। रहीम के दोहे में आँख कोई क्रिया नहीं कर रही है। बिना किसी क्रिया व्यापार के भी आँख दोहे में पूरी-पूरी है। अपनी सम्पूर्ण अस्मिता में, अपने पूरे अर्थ में, अपनी पूरी गहराई में, अपने पूरे विस्तार में आँख कविता में मौजूद है।
एक किरकिरी के परे, जियरा होत बेहाल
कहु रहीम कैसे रहैं, जिन आँखिन महुँआँख।।
कविता आँख के बारे में ही नहीं है। आँख के बहाने पूरी-पूरी प्रेम के बारे में है। आँख के बहाने ही प्रेम पहचान में आता है। प्रेम को पहचानने का माध्यम आँख ही है। आँख ही प्रेम की आँख है। आँख में ही प्रेम का सारा मर्म समाया हुआ है। आँख में आँख का समा जाना ही प्रेम में होना होता है। प्रेम का होना होता है।
रहीम प्रेम व्यवहार के नहीं, प्रेम के कवि हैं। आँखों में आँखों को लेकर रहना ही प्रेमी का रहना होता है। कैसे रहना होता है, इसे रहीम जानते हैं। इस मर्म को जान लेना ही रहीम होना है। अपनी आँखों में आँखों को बसा लेने के कारण ही रहीम आँखों में बसे रहने के योग्य बन सके हैं।
रहीम मूलतः प्रेम के कवि हैं। उन्होंने जीवन में प्रेम को उपलब्ध किया था। प्रेम की महिमा को उन्होंने अपने जीवन में पाया था। रहीम ने कविता को बड़ी महंगी कीमत चुकाकर पाया है। अपने जीवन का सबकुछ चुकाकर उन्होंने कविता को सहजे रखा। इसलिये कि उन्होंने जान लिया था कि मनुष्य के जीवन में सबसे बहुमूल्य चीज मनुष्य ही है। मनुष्य बने रहने के लिये और मनुष्य बचे रहने के लिये कविता ही एक मात्र सहायक है। कविता ही आदमी को आदमी बनाने की शक्ति रखती है। बाकी कुछ भी नहीं। रहीम के अनुभव में कविता हमेशा ही राजशक्ति से श्रेष्ठ और बहुमूल्य रही है।
बहुत बचपन में ही रहीम ने सत्ता की महत्वाकांक्षा की कुत्सा को देख लिया था। मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठापना के महानायक अपने पिता बैरम खाँ की जघन्य हत्या के खड़यंत्रकारी राजसिंहासन की जुगुप्सित अस्मिता उन्होंने पहचान ली थी। पिता को खोकर पितृत्व के आश्रय से वंचित होकर रहीम ने सत्ता के हत्यारे चरित्र को पहचान लिया था। सत्ता की महत्ता के प्रति रहीम का जुगुप्सा का बोध उनका आपना बोध है। पितृहन्ता सत्ता के हत्यारे आश्रय में पलने-बढ़ने के अभिशाप की वेदना ने रहीम को कवि बनाया था। रहीम ने अपने जीवन के अनुभव से जान लिया था कि सत्ता का चरित्र दोहरा है, दो रंगा है। क्षुद्रता भीहै और महत्ता भी है। जो महत्ता है, वह क्षुद्रतापूर्ण महत्ता है। क्षुद्रता को महत्ता की तरह दिखाने का कौशल राजनीति का मूल है। राजनीति के प्रति रहीम के मन में वितृष्णा का स्थिर भाव था। वे सत्ता में थे मगर सत्ता से निःसंग थे। सत्ता से निःसंग होने के कारण ही वे कवि थे। रहीम की रचना का सारा संघर्ष क्षुद्रता में महत्ता को बचाये रखने का संघर्ष है। इस संघर्ष में कविता ही उनका एकमात्र बल है।
एक-एक दोहे के लिये रहीम ने अपना सबसे बहुमूल्य बलिदान किया है। बहुत खोकर उन्होंने कविता रची है। कविता रचकर उन्होंने बहुत कुछ खोया है। अपने पिता को, खोकर, अपने पुत्र को खोकर, अपने पद को खोकर रहीम ने कविता की अर्चना की है। रहीम ने एक दोहा लिखा था – जहाँपनाह जहाँगीर के शासन में- रहिमन राज सराहिये, ससि सम सुखद जो होय। कहाँ बापुरो भानु है, तपै तरैयनि खोय।’’ चुगलखोरों ने जहाँगीर को दोहे का अर्थ समझाकर रहीम के प्रति भड़का दिया। दोहे में वर्णित सचाई से मुँह न चुराने के कारण रहीम को जीवन की समस्त पूँजी से वंचित होना पड़ा था। काव्य सत्य की रक्षा के लिये रहीम को सबकुछ गँवा देने में तनिक भी विचलन नहीं था।
जो बगैर कोई कीमत चुकाये कविता लिखते रहते हैं, उनके लिये कविता व्यवहार की चीज है। जो मुकम्मल कीमत चुकार कविता रचते हैं, उनके लिये कविता जिन्दगी से तनिक भी भिन्न नहीं होती। रहीम के लिए कविता व्यवहार नहीं विश्वास है। रहीम की कविता में विश्वास है। रहीम की कविता विश्वास की कविता है। रहीम विश्वास के कवि है।
रहीम की कविता में कहीं भी धन की, ऐश्वर्य की, प्रभुता की अभ्यर्थना नहीं है। रहीम के लिये ये सारी चीजें जीवन की उपादन हैं। इन सबसे अधिक मूल्यवान उनके लिये कुछ और है। वह कुछ और मनुष्य का जीवन है। मनुष्य में मनुष्य की आभा है, कान्ति है, चमक है, पानी है। पानीदार जिन्दगी रहीम की कविता का काम्य है। जीवन में जीवन का पानी बचाने के लिये वे सब कुछ को दाव पर लगा देने में तनिक भी नहीं हिचकते। रहीम कहते हैं कि पानी उतर जाने पर मनुष्य उबर नहीं सकता। बिना पानी के सब सूना हैै। राज-पाट, लाव-लश्कर, हाथी-घोड़ा, महल-खजाना सब बेकार है। बिना पानी का आदमी पानी में डूब जाता है। डूबकर मर जाता है। बेपानी आदमी पर रहीम को हमेशा तरस आता है। वह उन्हें दया का पात्र लगता है, भले ही वह जहाँपनाह ही क्यों न हो। रहीम के लिये पानी का मतलब आत्मजागृति है। रहीम के लिये पानी का अर्थ जीवन के उपादनों में नहीं बल्कि जीवन में अनुराग है।
रहीम की कविता कहती है कि पानीदार आदमी की आँख में ही पानी होता है। जिसकी आँख में पानी होता है, उसे अपने गोत को बढते हुए देखकर प्रसन्नता होती है। आदमी को आदमीयत का विस्तार होते देख सुख होता है। जो मनुष्य है और मनुष्य होने का मर्म जानता है, उसे मनुष्यता के विस्तार को देखकर खुशी होती है। मनुष्यता का विस्तार ही उसके जीवन का प्रयोजन होता है। उसे बढ़ते देखकर उसके जी में सुख होता है। कितना स्पृहणीय सुख है, रहीम का।
रहीम अपनी कविता में जिस तरह का दृष्टान्त जिस तरह से रचते हैं, वह अद्भुत होता है। दृष्टान्त का पूरी तरह कविता वन जाना। कविता का पूरी तरह दृष्टान्त बन जाना, रहीम के काव्य विवेक का बेजोड़ प्रमाण है। उनके कौशल का अमिट शिलालेख है। रहीम दृष्टान्त के बादशाह है। एकछत्र बादशाह। दृष्टान्त का इतना बड़ा कवि हिन्दी में दूसरा कोई नहीं है। दूसरे कारणों को लेकर बहुत बड़े-बड़े कवि हमारी परम्परा में हैं मगर दृष्टान्त के सबसे बड़े कवि रहीम हैं।
रहीम कहते हैं कि जैसे बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर आँखों को सहज ही सुख होता है। सुख बिना प्रयास के, बिना सोचे, बिना समझे उत्पन्न हो जाता है। छा जाता है। ‘‘ज्यों बड़री अँखिया निरखि, आँखिन को सुख होत।’’
बड़ी-बड़ी आँखें भरी-भरी आँखें होती है। बड़ा वही होता है, जो भरा होता है। रिक्तता आदमी को छोटा बनाती है। खालीपन का बोध मनुष्य को तुच्छ बना देता है। आकाश के अपार खालीपन को चाँदनी की स्निधता भरकर शोभन बना देती है। बड़ी आँखों का बड़प्पन सबकी आँखों को सुख से भर देता है। किसी का ऊँचाई में बड़ा होना, बल में बड़ा होना, धन में बड़ा होना, पद में बड़ा होना सबको सुख दे, न दे मगर किसी की आँख का बड़ा होना सबको सुख देने वाला होता है।
रहीम रहते तो थे महल में मगर उनके मन को जंगल पुकारा करते थे। महल की भव्यता के मुकाबले वन की शान्ति के संगीत में उनका मन अधिक रमता था। उनकी बागवानी में किसिम-किसिम के पेड़, पौधों और सुवासित फूलों का वैभव इठलाता था। अकबर और जहाँगीर के उद्यानों की शोभा के वे सहभोक्ता थे। मगर उनकी कविता में राज प्रसाद और राजोद्यान की कोई प्रशस्ति नहीं है। उनकी कविता में यशगान है, तो घोर घने जंगल में पत्थर के कठोर कलेजे पर हरियाली की मस्ती में झूमते उस पेड़ का है, उस पेड़ की अपराजेय जिजीविषा का है, जिसके लिये राम के अलावा दूसरे किसी का भरोसा नहीं है। जो दूसरे के भरोसे नहीं है, रहीम कविता, उसकी प्रशस्ति की कविता है-
‘‘रहिमन बिरवा बाग में, सींचे ते कुम्हिलाय
रहै भरोसे राम के, पाथर पर हरियाय।।’’
रहीम सन्त की सत्ता में भले न हों मगर वे सत्ता के सन्त अवश्य हैं। रहीम का होना सत्ता में सन्त के होने की तरह होना है। रहीम का होना तूफान से विक्षुब्ध सागर में चाँदनी के खेलते हुये प्रतिविम्ब की तरह होना है। रहीम का होना झंझावात में भींगती हुई, नहाती हुई, झूमती हुई हरियाली की तरह-होना है। रहीम का होना कहीं होकर भी वहाँ न होने और कहीं न होकर भी वहाँ होने जैसा होना है। रहीम का होना अनोखी रीति से कविता का होना है।
रहीम के पिता दूसरे देश से हिन्द देश में आये थे। वे इस देश की जमीन को आक्रान्त करने के लिये आये थे। वे इस देश पर अधिकार करने के लिये आये थे। वे मुगल साम्राज्य की स्थापना के अधिनायक थे। उन्होंने इस देश पर अधिकार किया? मुगल सत्ता के प्रति उनकी निष्ठा और उनकी बहादुरी का कितना मूल्य है? क्या पुरस्कार है? यह सब इतिहास का विषय है। इसका उत्तर तो इतिहास ही देगा। मगर रहीम मात्र एक पीढ़ी के भारतीय मुसलमान थे। उन्हें मुसलमान तो इतिहास कहता है। उन्हें मुसलमान कहना तो इतिहास की लाचारी है। दरअसल हमने परिचय के पारंपरिक तौर पर इतने भोंड़े और बेजान पैमाने ही गढ़ रखे हैं कि हमें व्यक्ति की पहचान के लिये जाति और धर्म का उल्लेख करना ही पड़ता है। मगर यह रहीम के लिये बेकार है। रहीम मुसलमान माता-पिता की सन्तान जरूर थे मगर वे मुसलमान नहीं थे। वे भारतीय थे। वे मनुष्य थे। वे कवि थे। वे बड़ी आँख को देखकर खुश होने वाले थे। वे अपने कुल-गोत का विस्तार देश, धर्म और जाति की सीमाओ को अतिक्रान्त करके करने के आकांक्षी थे। रहीम के लिये तुलसी भी उन्हीं के कुल के थे। वे भी तुलसी के कुटुम्ब के ही कुटुम्बी थे।
मात्र एक पीढ़ी के रहीम अपनी कविता की बनावट और बुनावट में जैसे भारतीय हैं वह पीढ़ी दर पीढ़ी के भारत के वाशिन्दे के लिये भी दुर्लभ है। स्पृहणीय है। रहीम की तरह का भारतीय होना आज भी किसके मन में स्पृहा नहीं जगा देता है। रहीम का राष्ट्रप्रेम भाषा में नहीं है, आन्तरिकता में है। उनकी कविता में देश प्रेम, काव्यवस्तु में नहीं है, काव्य भाषा में नहीं है, बल्कि काव्यसत्ता की सम्पूर्ण अस्मिता की व्याप्ति में है। उनका देश प्रेम भूगोल में नहीं है। भूगोल में व्याप्त सांस्कृतिक चेतना में है। विराट सांस्कृतिक चेतना में असीम अनुरक्ति के कारण, रहीम भारत के गौरवपूर्ण नागरिक हैं। अपने प्रेम के कारण, इस भारत भूमि की गरिमा के प्रति अपने समर्पण के कारण रहीम ने भारतीय चेतना पर अधिकार पा लिया। जो अधिकार बैरम खाँ अथक यु़द्ध करके नहीं पा सके। वह रहीम ने समर्पण करके पा लिया। हो सकता है इतिहास की स्मृति में मुगल शासन की स्मृतियां धूमिल पड़ जायं मगर साहित्यिक जगत में रहीम की स्मृति कभी मन्द होने वाली नहीं है।
रहीम के लिये कविता साधन नहीं है। साधना नहीं है। साध्य भी नहीं है। उनके लिये कविता जीवन से अभिन्न चीज है। उनके लिये कविता जीवन में है। जो जीवन में है, वही कविता है। उनमें कविता सहज है। उसके लिये कोई आयास नहीं है। कोई प्रयास नहीं है। जिन्दगी का कविता बन जाना और कविता का जिन्दगी बन जाना हमेशा नहीं, कभी-कभी होता हैं रहीम कभी-कभी होने वाले कवियों के गौरव के उत्तराधिकारी कवि हैं।
रहीम की कविता अपनी सत्ता में सत्ता के विस्थापक चरित्र की विरोधी कविता है। विस्थापन के वेदना कीरहीम की कविता में बड़ी मार्मिक व्यंजना है। सत्ता अपनी स्थापना के लिये सबको विस्थापित करती है। अपनी जगह, अपने अधिकार से, अधिसंख्य को विस्थापित करके ही सत्ता स्थापित होती है। रहीम ने देखा था- आँखों का पानी, जो आँखों में होकर चमक होता है, आँखों से कढ़कर यानी कि बाहर निकलकर आँसू बन जाता है। दुख का संवाहक हो जाता है। रहीम के लिये जिसके होने की जो जगह है, उस जगह उसका न होना ही आँसू है। रहीम कहते हैं,-‘‘रहिमन अँसुआ नयन कढ़ि, जिय दुख प्रगट करेइ।’’ आँसू आँखों से निकलकर दुख को प्रगट कर देते हैं। आँसू की जगह, आँसुओं के होने की जगह आँख है। आँसू आँख में होते हैं तो आँखों की चमक बढ़ जाती है। निकल जाते हैं बाहर तो आँखें उदास हो जाती हैं, निष्प्रभ। उसी तरह मनुष्य अपनी जगह से, अपने विरासत से वंचित कर दिया जाता है, तो दुख का संवाहक हो जाता है। रहीम का यह बोध उस समय का बोध है, जब मुगल सत्ता भारतीय जाति को उसकी विरासत से वंचित कर देने के अभियान का शंखनाद कर रही थी। रहीम उस अभियान के संचालक होकर भी उस अभियान के अवसाद को पहचान रहे थे। वे उस दारुण अवसाद को अपनी कविता में रच रहे थे। वे अपनी कविता में कह रहे थे कि जिसे अपने घर से निकाल दिया जायेगा, वह कैसे नहीं भेद कह देगा। अवश्य कह देगा। इस आचरण से मनुष्य और मनुष्य के बीच अभेद का बोध, अभेद का व्यवहार मिट जायेगा और भेद का, भिन्नता का बोध बढ़ता जायेगा। शासक और शासित का भेद, मुसलमान व हिन्दू का भेद, आक्रामक और आक्रान्ता का भेद, उत्पीड़क और उत्पीड़ित का भेद, मनुष्य और मनुष्य के बीच अभेद का भंजक है। रहीम की कविता इस भेद के विस्तार के व्यवहार की भर्त्सना की कविता है। इसीलिये रहीम कहते हैं-
’’रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो मत चटकाय
टूटे पर फिर ना जुडै, जुड़ै गाँठ पड़ि जाय।।’’
आदमी और आदमी के बीच प्रेम का जो सम्बन्ध है, वही एक-दूूसरे की आन्तरिकता को आपस में जोड़ने का सूत्र है। वह सूत्र जब टूट जाता है फिर नहीं जुड़ता। जुड़ भी जाता है, तो गाँठ पड़ जाती हैै। मगर आदमी है कि मानता ही नहीं। बार-बार तोड़ता है। बार-बार जोड़ता है। इसीलिये हमारे समाज में गाँठ ही गाँठ है। जाति की गाँठ, सम्प्रदाय की गाँठ, धर्म की गाँठ, ऊँच-नीच की गाँठ, धनी-गरीब की गाँठ, अनगिनत गाँठ है। धागा गाँठ-गाँठ हो गया है। गाँठ इतनी ज्यादा है कि गाँठ ही दिखाई देती है धागा तो दिखाई ही नहीं देता। रहीम की कविता मनुष्य जाति के इस अनन्त दुर्भाग्य के दुःख पर आँसू बहाती कविता है।
आँसू बहाते हुये भी रहीम जोड़ने का आग्रह बारम्बार अपनी कविता में दुहराते रहते हैं। वे टूटने की विडम्बना के विरूद्ध जोड़ने के आग्रह के अथक आग्रही कवि हैं,-रहिमन फिर-फिर पोहिये, टूटे मुक्ता हार।। हार का हर दाना मोती का है। बड़ा बेशकीमती है। समाज की हर इकाई बहुमूल्य है। सबको एक में गूँथकर रखने में ही उसकी मूल्यवत्ता है। उसका अर्थ है। टूट जाने पर सब व्यर्थ है। मोती चाहे जितना कीमती हो मगर उसमें से प्रेम सम्बन्ध के धागे से जुड़ने की योग्यता नहीं है, तो वह सौन्दर्य को सजाने का अलंकार नहीं बन सकता। हिन्दू भी महत्तम है, मुसलमान भी महत्तम है, ब्राह्मण भी महत्तम है, भिस्ती भी महत्तम है, मगर सबकी महत्ता एकमें जुड़कर माला बन जाने में ही है। सारी इकाई टूट गई है, हार बनकर ही समय का श्रृंगार कर सकती है। माला टूट गयी है, दाने बिखरे हैं, तो बेकार है। ऐसे मोती के दाने किसी काम के नहीं हो सकते। बस अधिक से अधिक बिगड़ैल बन्दर के खेल के काम के हो सकते हैं। बन्दर जब तक मन होगा दानों से खेलेगा फिर घूरे-डबरे पर फेंककर हाथ झार लेगा। रहीम की वाणी एकता के मन्दिर में गूँजती हुई है। प्रार्थना के शिल्प में न होते हुये भी महिमामय आलोक रहीम की कविता में उद्भसित है।
रहीम के लिये ‘जन’ में जो ‘सु’ है वह लगाव का बोध है। जो ‘कु‘ है वह अलगाव का वाचक है। जो जन लगाव का व्यवस्थापक है, वह सुराज है। अलगाव का प्रवर्तन करने वाली राजव्यवस्था कुराज है। रहीम कुराज की भर्त्सना करने वाले कवि है। वे सुराज की अभ्यर्थना में कविता रचते हैं। वे सुजन के सुयश का गान करते है। रहीम की कविता ‘जन’ में ‘सु’ की प्रतिष्ठा की कविता है। रहीम का अटल विश्वास है कि सुजन के होने से ही समय के सौभाग्य का उदय होता है।
रहीम धन के, वैभव और समृद्धि की आराधना के कवि नहीं है। वे संचय के उपासक कवि नहीं है। रहीम के अनुभव में धन जीवन निर्वाह की जरूरतों को पूरा करन सकने का माध्यम भर है। जहाँ, जरूरत है, वहाँ धन को होना चाहिए। आवश्यकता के सम्मुख ही धन का अर्थ है। आवश्यकता के अभाव में धन का संचय और भंडारण बड़ा खतरनाक है। वह जीवन को वैसे ही डुबा देने वाला हो जाता है, जैसे नदी में चलती हुई नाव में पानी का भर जाना है। नाव में पानी भर जाने से नाव डूब जाती है। नाव में पानी का इकट्ठा होना नाव के डूब जाने का सूचक है और जिन्दगी में धन का इकट्ठा होना जीवन के डूब जाने का सूचक है। नाव में पानी का और जिन्दगी में धन का इकट्ठा होना जीवन के डूब जाने का। नाव पानी में चतली है। जीवन धन में होकर गुजरता है। जिन्दगी धन के सहारे आगे बढ़ती है। मगर नाव में पानी का भर जाना और जीवन में धन का भर जाना,- जीवन की व्याप्ति में धन का जगह बना लेना, देानों को डूबा देने के लिये पर्याप्त हो जाता है। इसीलिये रहीम ने अपनी कविता में आकांक्षा व्यक्त की है कि-
‘‘पानी बाढ़ै नाव में घर में बाढ़े दाम
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम।’’
कितना विचित्र है कि हम कबसे रहीम की कविता पढ़ते हुय अब भी सयाने नहीं हो सके हैं। कैसी विडम्बना है कि रहीम की कविता की प्रशस्ति गाते हुय भी हमने अभी भी उनकी पुकार अनसुनी कर रखी है। कविता का हमारे जीवन में न होकर पूजा घर में होना कितना विस्मयजनक है। मगर हमारे समय के लिये क्या? हमारा तो पूरा समय ही विस्मय का समय है। हमारे समय में सब कुछ विस्मयजनक है। हमारे समय में कुछ भी विस्मयजनक नहीं है। कुछ भी होना हमारे समय में संभव है। हमारे समय में कोई विश्वास नहीं है। सब कुछ अविश्वसनीय है। हमारा समय असंभावनाओं की संभावना का समय हो गया है, ओफ, कितना दारुण है। ऐसे दारुण समय में भी रहीम की कविता हमें पुकार कर कही रही है’ भाई हे! कुछ भी करो न करो तुमरी मर्जी। जो कुछ कर रहे हो सब करो। मगर एक काम बस और करो। हमारे कहने से जरूर करो। प्रेम की सराहना जरूर करो। प्रेम को जरूर सराहो। इसमें एक पैसे का भी खर्च नहीं है। प्रेम की सराहना करने के लिये कवि होना जरूरी नहीं है। शिक्षित होना जरूरी नहीं है। बस आदमी होना जरूरी है और आदमी हर कोई है।
आज हर कोई अपनी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। हर किसी के पाँव के नीचे जमीन खिसक रही है। हर कोई घर से निष्कासित होता जा रहा है। भले इसका पता हो, न हो। घर-घर में अभेद मिट रहा है। भेद बढ़ रहा है। आदमी कायर, नपंुसक और स्वार्थी होकर अपनी अस्मिता गँवाता जा रहा है। कुछ पाने की लिप्सा में सब कुछ खोता जा रहा है। अपने को खोकर कुछ पाने की खतरनाक वंचना ने आदमी को दबोच ली है। मगर रहीम की कविता है कि वह आज भी चुप नहीं है। वह अथक भाव से टेरती आ रही है, – रहिमन प्रीति सराहिये।’’
रहीम संतुष्ट थे- सम्पति में भी और विपत्ति में भी। अविरोध की साधना उमें सिद्ध थी। उन्होंने जान लिया था कि विरोध ही, जीवन में भार है। जो कुछ है उसकी अस्वीकृति ही जीवन को बोझ बना देती है। वह दुख के अपार पारावार का सृजन कर देती है। रहीम ने अपने जीवन में सारे भार को ‘भाड़’ में झोंक दिया था। उनका सारा बोझ जल गया था। दुख के विस्तार को उनहने पार कर लिया था। उनके लिये दुःख की वैतरणी नहीं थी। हाँ, यह बात अलग है कि दुख की वैतरणी को उन्होंने गाय की पूँछ पकड़कर नहीं पार किया था। पार किया था जिन्दगी के बोझ को जलाकर।
जीवन में सारे भार को जलाकर रहीम जीवन में सन्तुष्टि को पा सके थे। वे जीवन से संतुष्ट थे। जो अभी-अभी प्राप्त है, उपलब्ध है, उसमें वे संतुष्ट थे। संतोष की कीमत उन्हें मालूम हो गयी थी। उनके लिये यही सबसे बड़ा धन है। जब तक हम अपने जीवन से, जीवन में संतुष्ट नहीं है, गोधन, गजधन, वाजिधन, रतनधन और अचूक खजाना हमारे लिये मूल्यवान है। मगर ये सारे धन चाहे जितने मूल्यवान हों, लेकिन हमें भरते नहीं है। खाली ही करते हैं। हमें रिक्त करते हैं। खोखला बनाते हैं। हमें खोखला बनाकर हमारे खालीपन में खुद भरते आते हैं। जैसे ही हम जीवन से संतुष्ट हो लेते हैं, हम भीतर से भर जाते हैं। जीवन में, जीवन का रस भर जाता है, आनन्द भर जाता है। कोई अवकाश नहीं बचता। सारे धन धूल के समान व्यर्थ हो जाते हैं। रहीम भरे हुये आदमी हैं। रस से भरे हुये। जीवन रस से भरे हुये। कोई भरा हुआ आदमी ही प्रेम को पा सकता है। प्रेम को पाकर ही प्रेम को गा सकता है। रहीम की कविता प्रेम के यशगान की कविता है। रहीम की कविता प्रेम के यशगान के लिए अकुंठ उत्प्रेरणा की कविता है।
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