Young Writer, साहित्य पटल। ललित निबंधकार Dr. Umesh Prasad Singh (डा. उमेश प्रसाद सिंह )
आजकल जलेबी का बड़ा जलवा है।
‘‘कहाँ जलवा है?
धत्तेरे की। यह भी कोई सवाल है। कहाँ थे महाराज?….
कुम्भकर्ण की नींद में निमग्न थे क्या? दिन में आकाश के तारे तोड़ रहे थे क्या? मंगल पर प्लाट बुक कराने चले गए थे क्या? क्या राजा बलि से मंत्रणा करने पाताल पधार गए थे?
आप कुछ कहें चाहे न कहें। आप धरती पर जीवित, जाग्रत अवस्था में जरूर नहीं रहे होंगे। रहे होते तो ऐसा सवाल कदापि नहीं करते। भला कहाँ नहीं है जलेबी। हर कहीं जलेबी छाई हुई है।
अखबार में जलेबी। टी.वी.में जलेबी। सोशल मीडिया में जलेबी। देश में जलेबी। देश,देश में जलेबी। हिन्दुस्तान में जलेबी। पाकिस्तान में जलेबी। हरियाणा, पंजाब में जलेबी। केरल, तमिलनाडु में जलेबी। असम में लद्दाख में जलेबी। कनाडा में जलेबी। नेपाल, भूटान में जलेबी। बिना खरचे के हर कहीं जलेबी के चरचे। आँख मूदो तो जलेबी। आँख खोलो तो जलेबी।
पहले जलेबी केवल जलेबी की दुकान पर थी। केवल सुबह-शाम में थी। इधर हर दुकान पर जलेबी है। चाय कीदुकान पर जलेबी। पान की दुकान पर जलेबी। यहाँ तक कि सब्जी की दुकान पर भी जलेबी लोगों की जबान पर चढ़ी बैठी है।
जबान पर जलेबी तो है। मगर मिठास नहीं है। उसका रस हवा हो गया है।
हुआ यह कि राहुल गाँधी (Rahul Gandhi) हरियाणा विधानसभा चुनाव (Hariyana Vidhansabha Election) में अपने अभियान पर थे। वे खून पसीना बहाकर कांग्रेस को हरियाणा में सत्तासीन करने के संकल्प में लथपथ थे। वे चाहे जैसे भी हो सत्ता हथियाने का हठयोग आँख मूदकर साधने की साधना में तल्लीन थे। सत्ता हथियाने के लिए सभी राजनीतिक दल कुछ भी करने के लिए उतारू रहते हैं। कुछ भी करने पर आमादा आदमी के लिए कुछ भी कह देना कठिन नहीं होता। कुछ भी कह देने को आतुर रहने में कुछ का कुछ हो जाना हमेशा संभावित बना रहता है।
चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गाँधी को उनके किसी प्रेमी भक्त ने गोहाना की प्रसिद्ध मातुराम की जलेबियाँ खिलाईं। देसी घी की कुरकुरी चसक चीनी की चासनी में डूबी जलेबी राहुल गाँधी को भा गई। जलेबी उन्हें बड़ी मीठी लगी। उनका मुँह मीठा हो गया। मुँह मीठा हो गया तो हो गया। कोई बात नहीं। मगर राहुल जी का मन भी मीठा हो गया। राहुल जी जलेबी की चासनी में चिपक गए चींटे की तरह। उनका मन उड़ने लगा हवा में। उन्हें महसूस हुआ कि यह मीठी जलेबी उन्हें सत्ता तक पहुंचाने की सीढ़ी बन सकती है। सो उन्होंने जलेबी को उछाल दिया नारा की तरह हवा में। मंच पर उन्होंने अपने भाषण के दौरान जलेबी का पैकेट लहरा-लहरा कर जनता के दिल को जलेबी के लिए ललचाकर वाहवाही लूटने का खेल खेला। उन्होंने हवा बाँधने के लिए जनता को दिन में सपने दिखा दिया। जलेबी की फैक्ट्री लगाने की परियोजना का मसौदा पेश कर डाला। उसके दुनियाँ भर में निर्यात करके विश्वव्यापी बनाने की मौलिक कल्पना उद्घाटित कर दी। राहुल गाँधी अपनी मौलिक उद्भावना पर बेहद गदगद हो उठे। राहुल को पता ही नहीं चला कि उनकी जबान फिसल गई है। पता चल भी कहाँ पाता है। पता रहे तो फिसले भी कैसे! अब फिसल गई तो फिसल गई। जलेबी जबान से उछलकर हवा में उड़ चली। जबान समहकर देखती रह गई। जलेबी आकाश चढ़ गई।
जलेबी हवा में उड़ी तो उड़ती चली गई। देश के कोने-कोने में ही नहीं। वह दुनियाँ के कोने-कोने में छा गई। पता नहीं करामात जलेबी की है या राहुल की जबान की। जलेबी उछाली गई। राहुल की जबान पकड़ी गई। राहुल की जबान पकड़ने के लिए जिनको अपने हाथ काम लायक समझ में आए सबने बढ़ाए। भाजपा के लोगों का वश चले तो राहुल की जीभ को वे मुँह में हाथ डालकर खींच लें। मगर चूँकि ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए नहीं होता। फिर भी भाजपा नेता चुटकी में राख मलकर हमेशा तैयार रहते हैं कि जीभ जरा भी मुँह से बाहर निकले तो खींच लें। इधर राहुल हैं कि मानते ही नहीं। बार-बार खेल में हार कर पिनपिना जाने वाले लड़ाके जिद्दी लड़के की पिनक में जीभ बाहर निकाल कर जीतने वाले को पिड़काते रहते हैं।.
देखते-देखते जलेबी की मिठास न जाने कहाँ विलीन हो गई। कण्ठों में कड़वाहट भर गई। जलेबी की जलेबी बनने लगी। जलेबी का उत्स खोजा जाने लगा। गोत्र खोजा जाने लगा। जलेबी की खेती होने लगी। जलेबी का व्यापार होने लगा। जलेबी से मुनाफा कमाया जाने लगा। जलेबी से घाटा खाने का धन्धा भी चला। जलेबी जलेबी हो गया सब कुछ।
जलेबी खूब चली। इतनी चली, इतनी चली कि क्या कहना। शोधार्थी अन्वेषकों को जलेबी ने खूब दौड़ाया। इसका उत्स तलाशने में बुद्धिजीवियों को पर्सिया जो अब ईरान है तक की यात्रा करनी पड़ी। अरब तक जाना पड़ा। इतिहास तक नहीं छूटा। दसवीं शताब्दी तक पीछे लौटकर जलेबी की उपस्थिति का परीक्षण हुआ। भारतीय बोध के लोगों ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भाव प्रकाश’ में जलेबी की उपयोगिता के प्रमाण ढूढ निकाले। क्या, क्या नहीं हुआ जलेबी को लेकर जलेबी के पीछे। जो हो सकता था। सब हुआ। हाँ, जलेबी को लेकर वेद तक जाने की उड़ान किसी ने नहीं भरी।
कांग्रेस की सारी उम्मीदें जलेबी की चासनी में डूब गई। भाजपा (BJP) के मुँह में जलेबी की मिठास मुस्करा रही है। हरियाणा में जो हुआ सो हुआ। मैं सोचता हूँ जलेबी का क्या हुआ? कुछ नहीं। जलेबी जहाँ थी, वहीं है। जलेबी जैसे थी, वैसे है। राहुल गाँधी की जबान से जलेबी के फिसलने के बाद कितने-कितने लोगों की जबान जलेबी पर फिसलती रही। मगर जलेबी न उठी न गिरी। न बढ़ी, न चढ़ी। आखिर जलेबी बस जलेबी है। जलेबी को भला राजनीति से क्या लेना, देना। किसी का राजनीति से कुछ लेना देना हो न हो दीगर बात है। मगर राजनीति का तो हर किसी से, हर कुछ से लेना-देना है। जलेबी से राजनीति ने खूब लिया। खूब-खूब लिया। जितना ले सकती है, पूरा लिया। फिर दिया क्या? कुछ नहीं। जलेबी हलवाई की दुकान में थाल में सजी बैठी है, ग्राहक के इंतजार में ठंडी होती हुई। राजनीति के लिए यह कत्तई जरूरी नहीं कि वह जिससे कुछ ले उसे दे भी। वह किसी का सब कुछ लेकर कुछ भी न देने को स्वतंत्र है। किसी से कुछ भी न लेकर बहुत कुछ देने को भी समर्थ है। राजनीति का हाथ भला कौन पकड़ सकता है! नहीं। कोई नहीं। उसके हाथ में सबके हाथ बँधे हैं।
राजनीति जलेबी का जायका जानती है। वह सत्ता के सिंहासन पर बैठकर जलेबी को जीमती है। जब मन हो रबड़ी में डुबाकर। जब मन हो दही में लपेटकर। जनता का क्या? वह तो बस तजलेबी बनाती रह जाती है। वह तो जलेबी बनती रह जाती है। खैर! जो हुआ सो हुआ। सरकार गई। फिर सरकार बनी। कोई दल जीता। कोई हारा। मगर जलेबी जीत गई। क्या कमाल है जलेबी का। जलेबी को उछालने वाला हार गया। जलेबी जीत गई। जलेबी को उछालने वाला हवा हो गया। जलेबी हवा में हो गई। जलेबी की हवा चल पड़ी। जलेबी की हवा बँध गई। बड़ी-बड़ी दुकानों की मँहगी से मँहगी मिठाइयों को लंघी मारकर जलेबी सबसे आगे निकल गई। धन्य है, जलेबी। धन्य है जलेबी का जलवा। जलेबी की जय हो।
सम्पर्क – डा.उमेश प्रसाद सिंह
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